मूल अधिकार एवं कर्त्तव्य भारतीय संविधान के भाग-3 के अनुच्छेद 12 से 35 तक मौलिक अधिकारों का विस्तृत वर्णन किया गया है। डॉ. अम्बेदकर ने मूल अधिकारों से संबंधित संविधान के भाग-3 को “सर्वाधिक आलोकित भाग” कहा था। इन अधिकारों का निर्धारण संविधान सभा द्वारा गठित एक समिति द्वारा किया गया, जिसके अध्यक्ष सरदार वल्लभ भाई पटेल थे।
मूल अधिकार एवं कर्त्तव्य | Fundamental Rights and Duties
मूल अधिकार तथा विधिक अधिकार
1. मूल अधिकार संविधान प्रदत्त हैं, जबकि विधिक अधिकार अधिनियमों द्वारा प्रदान किए जाते हैं।
2. मूल अधिकार समाप्त या कम नहीं किए जा सकते, जबकि विधिक अधिकार समाप्त या कम किये जा सकते हैं।
3. मूल अधिकार उच्चतम न्यायालय एवं उच्च न्यायालयों द्वारा प्रवर्तित किये जाते हैं, जबकि विधिक अधिकार सामान्य न्यायालयों द्वारा प्रवर्तित किये जाते हैं।
4. मूल अधिकारों का उल्लंघन कुछ अपवादों को छोड़कर केवल राज्य द्वारा ही किया जा सकता है, जबकि विधिक अधिकारों का उल्लंघन सामान्य व्यक्तियों, जिसमें विधिक व्यक्ति भी शामिल हैं, द्वारा ही किया जा सकता है।
5. मूल अधिकार विधिक अधिकारों में सर्वोच्च होते हैं। मूल अधिकार एवं कर्त्तव्य
सरकारी सेवाओं में आरक्षण प्रदान करने के मानदंड नियत करने के लिए 1953 में काका कालेलकर आयोग तथा 1978 में मंडल आयोग का गठन किया गया। काका कालेलकर आयोग की सिफारिशों को अमान्य कर दिया गया, लेकिन मंडल आयोग की सिफारिशों को स्वीकार करते हुए पिछड़े वर्गों के आरक्षण का प्रावधान किया गया है। इन्दिरा साहनी बनाम भारत संघ मामले में तथा कई अन्य मामलों’ में सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि किसी भी शर्त पर आरक्षण 50 प्रतिशत से अधिक नहीं होना चाहिए। मूल अधिकार एवं कर्त्तव्य
इस बात को स्वीकार किया जाना चाहिए कि बुनियादी तौर पर कोई भी आरक्षण विभेदकारी होगा, क्योंकि इससे समानता के सिद्धांत का उल्लंघन होगा और योग्यता को निम्न प्राथमिकता दी जायेगी। इस प्रकार बहुत से योग्य उम्मदवारों को हताशा होगी। इसलिए किसी भी आरक्षण की विधिमान्यता की परख इस आधार पर की जा सकती है कि क्या यह किसी तर्कसंगत तथा प्रासंगिक मानदंड पर आधारित है। मूल अधिकार एवं कर्त्तव्य
अनुच्छेद 16: यह कहता है कि
(1) “राज्य के अधीन किसी पद पर नियोजन से संबंधित विषयों में
सभी नागरिकों के लिए अवसर की समता होगी।”
(2) “कोई नागरिक केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, उद्भव,
जन्मस्थान, निवास या इनमें से किसी के आधार पर राज्य के अधीन किसी नियोजन या पद के संबंध में आपात्र नहीं होगा या उसमें विभेद नहीं किया जायेगा।” मूल अधिकार एवं कर्त्तव्य
उपर्युक्त समता के सिद्धांत के निम्नलिखित अपवाद हैं
(i) अनुच्छेद 16(3) के अनुसार संसद कानून बनाकर किसी राज्य या स्थानीय प्राधिकारी के अधीन आने वाले किसी वर्ग या वर्गों के पद पर नियोजन या नियुक्ति के संबंध में निवास का उपबंध कर सकती है। वर्तमान में केवल आंध्र प्रदेश के संबंध में इस तरह का विशेष प्रावधान किया गया है। लोक नियोजन अधिनियम-1957 में निवास संबंधी अर्हता का प्रावधान (कुछ राज्यों के लिए) किया गया था, किंतु 1974 में इसे समाप्त कर दिया गया। मूल अधिकार एवं कर्त्तव्य
(ii) अनुच्छेद 16(4) राज्य, पिछड़े हुए नागरिकों के किसी वर्ग के पक्ष में, जिनका प्रतिनिधित्व राज्य की राय में अधीन सेवाओं में पर्याप्त नहीं है, नियुक्तियों या पदों के आरक्षण का प्रावधान कर सकती है।
(iii) अनुच्छेद 16(5) राज्य, किसी धार्मिक या सांप्रदायिक संस्थाओं के क्रियाकलापों का प्रबंध करने के लिए किसी विशेष धर्म या संप्रदाय के मानने वाले लोगों की ही नियुक्ति करने के लिए कानून का निर्माण कर सकती है।
पृथक्करण का सिद्धांत
अनुच्छेद 13(1) व 13(2) के अनुसार, कानून का कोई भी भाग, जो संविधान के भाग III से असंगत हो, वह असंगत होने की मात्रा तक शून्य माना जाएगा।
पृथक्करण का सिद्धांत निर्धारित करता है कि यदि कानून के वैध भागों को उके शून्य भागों से अलग किया जा सकता है तथा यदि वैसे वैध भागों को स्वतंत्र संविधि के रूप में निर्मित माना जा सकता है, तो ये भाग वैध बने रहेगें।
77वां संविधान संशोधन (1995)
राज्य अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति के सदस्यों के लिए सरकारी सेवा में पदोन्नति हेतु आरक्षण की व्यवस्था कर सकती है। यह संशोधन उच्चतम न्यायालय द्वारा इंदिरा साहनी बनाम भारत संघ के वाद (मंडलवाद) में दिये गये निर्णय के प्रभाव को समाप्त करने के लिए किया गया है, जिसमें यह कहा गया था कि सरकारी सेवाओं में पदोन्नति में आरक्षण की व्यवस्था लागू नहीं की जायेगी।
यहां यह उल्लेखनीय है कि अनुच्छेद 335 के अनुसार-संघ या राज्य के क्रियाकलापों से संबंधित सेवाओं और पदों के लिए नियुक्तियां करने में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के दावों का, प्रशासन की दक्षता बनाये रखने की संगति के अनुसार ध्यान रखा जायेगा।
77 वाँ संविधान संशोधन (1995) से सम्बन्धित मौजूदा संविधान संशोधन विधेयक 117 वां संविधान संशोधन विधेयक (2012) है। दिसम्बर 2012 में राज्य सभा द्वारा पारित कर दिया गया है, इस विधेयक का उद्देश्य सरकारी नौकरियों में उच्च पदों पर अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के प्रतिनिधित्व को बढ़ाना है।
अनुच्छेद 17: “अस्पृश्यता’ का अन्त किया जाता है और उसका किसी भी रूप में आचरण निषिद्ध किया जाता है। ‘अस्पृश्यता’ से उपजी किसी निर्योग्यता को लागू करना अपराध होगा जो विधि के अनुसार दण्डनीय होगा।”
सामाजिक समानत को और अधिक व्यावहारिकता प्रदान करने के लिए अस्पृश्यता की कुरीति को समाप्त किया गया है। संसद ने 1955 में अस्पृश्यता अपराध, अधिनियम, 1955 पारित किया था। सितम्बर 1976 में संसद द्वारा इस अधिनियम का और कठिन बना दिया गया। सामान्य नागरिकों के लिए कैद और जुर्माना की व्यवस्था के अलावा इस अधिनियम में यह भी कहा गया है कि छुआछूत बरतने वाले व्यक्ति संसद और विधान मंडलों की सदस्यता के लिए अयोग्य घोषित किए जा सकेंगे।
अनुच्छेद 18: यह अनुच्छेद राज्य को, किसी व्यक्ति को चाहे वह भारतीय हो या विदेशी, उपाधियां प्रदान करने का प्रतिरोध करता है। इसके अंतर्गत निम्न प्रावधान हैं
(i) राज्य सेना या विधा संबंधी सम्मान के सिवाय और कोई उपाधि प्रदान नहीं करेगा।
(ii) भारत का कोई नागरिक किसी विदेशी राज्य से कोई उपाधि स्वीकार नहीं करेगा।
(iii) जो व्यक्ति भारत का नागरिक न होते हुए राज्य के अधीन लाभ या विश्वास का कोई पद धारण करता है, वह विदेशी राज्य से कोई उपाधि राष्ट्रपति की सहमति के बिना स्वीकार नहीं करेगा।
(iv) राज्य के अधीन लाभ या विश्वास का पद धारण करने वाला कोई
व्यक्ति किसी विदेशी राज्य से या उसके अधीन किसी रूप में कोई भेंट, उपलब्धि या पद राष्ट्रपति की सहमति के बिना स्वीकार नहीं करेगा।
यह ध्यान देने योग्य है-
(क) कि यह प्रतिबंध केवल राज्य के विरुद्ध है। अन्य सार्वजनिक संस्थाएं
जैसे विश्वविद्यालय आदि अपने नेताओं या गुणीजनों का सम्मान करने
के लिए उन्हें उपाधियां या सम्मान दे सकते हैं।
(ख) कि राज्य को सेना या विधा संबंधी सम्मान देने से नहीं रोका गया
है, यद्यपि उनका उपयोग उपाधि के रूप में किया जा सकता है।
(ग) राज्य को सामाजिक सेवा के लिए कोई सम्मान या पुरस्कार देने
से निवारित नहीं किया गया है। इस सम्मान का उपाधि के रूप में अर्थात अपने नाम के साथ जोड़कर उपयोग नहीं किया जा सकता।
विशिष्ट सामाजिक सेवा करने वाले व्यक्तियों को भारत रत्न, पद्मविभूषण, पद्मभूषण तथा पदम्श्री देने की शुरुआत भारत सरकार ने 1954 में शुरू की, लेकिन जनता पार्टी की सरकार के 1977 में सत्ता में आने के बाद इन उपाधियों का अंत कर दिया गया, क्योंकि तत्कालीन महान्यायवादी ने भारत सरकार को यह सलाह दी थी कि ये उपाधियां संविधान के अनुच्छेद 18 का उल्लंघन करती हैं। लेकिन 1980 से इसे पुनः प्रारंभ कर दिया गया। मूल अधिकार एवं कर्त्तव्य
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मूल कर्तव्य Drishti IAS
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इन्हें भी पढ़ें –
- मूल अधिकार एवं कर्त्तव्य | Fundamental Rights and Duties [Part-1]
- राज्य के नीति निर्देशक तत्व | Directive Principles of State Policy [Part-3]
- राज्य के नीति निर्देशक तत्त्व | Directive Principles of State Policy [Part-2]
- राज्य के नीति निर्देशक तत्त्व | Directive Principles of State Policy [Part-1]
- संवैधानिक इतिहास | Constitutional History [Part-3]
- संवैधानिक इतिहास | Constitutional History [Part-2]
- संवैधानिक इतिहास | Constitutional History[Part-1]