मूल अधिकार एवं कर्त्तव्य भारतीय संविधान के भाग-3 के अनुच्छेद 12 से 35 तक मौलिक अधिकारों का विस्तृत वर्णन किया गया है। डॉ. अम्बेदकर ने मूल अधिकारों से संबंधित संविधान के भाग-3 को “सर्वाधिक आलोकित भाग” कहा था। इन अधिकारों का निर्धारण संविधान सभा द्वारा गठित एक समिति द्वारा किया गया, जिसके अध्यक्ष सरदार वल्लभ भाई पटेल थे।
मूल अधिकार एवं कर्त्तव्य | Fundamental Rights and Duties
भाग III के बाहर उल्लिखित अधिकार
अनुच्छेद 300 कः संपति का अधिकार विधि के प्राधिकार से ही किसी व्यक्ति को उसकी संपत्ति से वंचित किया जाएगा, अन्यथा नहीं।
अनुच्छेद 301: व्यापार, वाणिजय और समागम की स्वतंत्रता- इस भाग के अन्य उपबंधों के अधीन रहते हुए भारत के राज्यक्षेत्र में सर्वत्र व्यापार, वाणिज्य और समागम अबाध
अनुच्छेद 265: विधि के प्राधिकार बिन कोई भी कर आरोपित नहीं किया जाएगा।
स्वतंत्रता का अधिकार :
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 से 22 तक स्वतंत्रता संबंधी अधिकारों का उपबंध किया गया है। अनुच्छेद 19 भारत के नागरिकों को विशिष्ट रूप से छह बुनियादी स्वतंत्रताओं अर्थात भाषण और अभिव्यक्ति, बिना हथियारों के शांतिपूर्वक सम्मेलन, संगम बनाने, भारत के राज्य क्षेत्र में सर्वत्र आने-जाने, भारत के किसी भाग में निवास करने और बस जाने और कोई वृति, उपजीविका, व्यापार या कारोबार करने की स्वतंत्रता की गारंटी देता है। मूलतः संविधान के अनुच्छेद 19 में सात स्वतंत्रताएं थीं, जिनमें से 44वें संविधान संशोधन, 1976 द्वारा एक स्वतंत्रता अर्धात, संपत्ति के अर्जन, धारण और व्ययन के अधिकार’ को निकाल दिया गया है। मूल अधिकार एवं कर्त्तव्य
अनुच्छेद 19(1)(क)- वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रताः इसके द्वारा भारत के सभी नागरिकों को भाषण और अभिव्यक्ति अर्थात विचार व्यक्त करने की स्वतंत्रता दी गयी है। विचार व्यक्त करने में भाषण देने, अपने तथा अन्य व्यक्तियों के मत को प्रचारित करने तथा प्रेस की स्वतंत्रता शामिल है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार रेडियो और दूरदर्शन पर भी लागू होता है।
संविधान में यह प्रावधान किया गया है कि वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर राज्य द्वारा भारत की प्रभुता और अखंडता, राज्य की सुरक्षा, विदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंधों, लोक व्यवस्था, शिष्टाचार या सदाचार के हितों में अथवा न्यायालय की अवमानना, मानहानि या अपराध उद्दीपन के आधार पर प्रतिबंध लगाया जा सकता है।
अनुच्छेद 19(1) (ख)- शांतिपूर्ण तथा निरायुद्ध सम्मेलन की स्वतंत्रता- इसके द्वारा भारत के प्रत्येक नागरिक को यह अधिकार प्रदान किया गया है कि वह अपने विचारों के प्रचार के लिए शांतिपूर्ण तथा निरायुध सम्मेलन कर सकता है। इसके अंतर्गत सार्वजनिक सम्मेलन बुलाने तथा जुलूस निकालने का अधिकार भी शामिल है। उल्लेखनीय है कि हड़ताल करने के अधिकार को मूल अधिकार नहीं माना गया है।
इस अधिकार पर भारत को संप्रभुता तथा अखंडता या लोक व्यवस्था और सदाचार के हितों में युक्तियुक्त प्रतिबंध लगाये जा सकते हैं। अनुच्छेद 19(1) (ग)- संगम या संघ बनाने की स्वतंत्रता : इसके द्वारा सभी नागरिकों को संघ तथा संगठन बनाने का अधिकार दिया गया है। इस स्वतंत्रता पर भी भारत की संप्रभुता तथा अखंडता या लोक व्यवस्था और सदाचार के हितों में युक्तियुक्त प्रतिबंध लगाये जा सकते हैं। मूल अधिकार एवं कर्त्तव्य
अनुच्छेद 19(1) (घ)- भारत में सर्वत्र अबाध संचरण की स्वतंत्रता: भारत का कोई भी नागरिक भारत के राज्य क्षेत्र में बिना किसी
रोक-टोक के स्वतंत्रतापूर्वक आ-जा सकता है। अपवाद स्वरूप सार्वजनिक हित तथा अनुसूचित जनजातियों की रक्षा की दृष्टि से इस पर प्रतिबंध लगाया जा सकता हैं।
अनुच्छेद 19(1) (क): भारत के राज्य क्षेत्र के किसी भाग में निवास करने और बस जाने की स्वतंत्रता- इस स्वतंत्रता पर भी लोकहित तथा अनुसूचित जनजातियों की रक्षा की दृष्टि से प्रतिबंध लगाये जा सकते हैं।
अनुच्छेद 19(1) (छ)- वृति, उपजीविका या कारोबार करने की स्वतंत्रता : इसके द्वारा प्रत्येक भारतीय नागरिक को किसी भी व्यवसाय, वृत्ति, उपजीविका अथवा व्यापार की स्वतंत्रता प्रदान की गयी है। राज्य द्वारा सामान्य जनता के हित में इन स्वतंत्रताओं पर युक्तियुक्त प्रतिबंध लगाये जा सकते हैं। उदाहरणस्वरूप किसी व्यवसाय के लिए कोई खास तकनीकी योग्यताएं निर्धारित की जा सकती है। मूल अधिकार एवं कर्त्तव्य
अनुच्छेद 14 का अपवर्जन या सीमाएं
संविधान में कुछ ऐसे विशेष प्रावधान हैं, जो कुछ परिस्थितियों | में अनुच्छेद 14 के प्रभाव को सीमित करते हैं
अनुच्छेद 361 निर्धारित करता है कि राष्ट्रपति व राज्यपालों के पदासीन रहते हुए उनके विरुद्ध आपराधिक सुनवाई नहीं हो सकती।
42वें संशोधन अधिनियम, 1976 के द्वारा अनुच्छेद 14 के तहत समता के अधिकार की संभावना को काफी हद तक सीमित कर दिया | गया है। इस संशोधन अधिनियम के द्वारा जोड़ा गया अनुच्छेद 31(ग) यह निर्धारित करता है कि अनुच्छेद 39 के उपबंध (ख) व उपबंध (ग) में दिए गए नीति-निर्देशक सिद्धांतों के क्रियान्वयन के लिए राज्य द्वारा बनाए गए कानूनों को इस आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकती कि अनुच्छेद 14 से उनका विरोध है। वैसे कानून संविधान के अनुच्छेद | 14 के अपवाद माने जाएंगे। अंतर्राष्ट्रीय कानून के तहत, विदेशी संप्रभु राजदूतों व राजनयिकों पर कानून संबंधी कोई भी प्रक्रिया लागू नहीं होती।
अनुच्छेद 359(1) निर्धारित करता है कि जब आपात्काल की घोषणा लागू हो, वैसी स्थिति में राष्ट्रपति आदेश द्वारा घोषणा कर सकता है। कि भाग III में प्रदत्त वैसे अधिकारों (अनुच्छेद 20 व 21 को छोड़कर) को क्रियान्वित करने के लिए न्यायालय में जाने का अधिकार निलंबित कर दिया गया है। अतः यदि भारत का राष्ट्रपति आपात् की घोषणा लागू होने की स्थिति में ऐसा आदेश जारी करता है, तो आपात् को | घोषणा लागू रहने तक की अवधि तक अनुच्छेद 14 क्रियान्वित रहेगा। मूल अधिकार एवं कर्त्तव्य
आच्छादन का सिद्धांत
संविधान के अनुच्छेद 13(1) के अनुसार भारत में संविधान के प्रवर्तन के पहले से क्रियान्वित सभी कानून जिस सीमा तक किसी एक या सभी मौलिक अधिकारों से असंगत हैं, उसी सौमा तक वे शून्य माने जाएंगे अर्थात् उन कानूनों के जो भाग मौलिक अधिकारों से असंगत नहीं हैं, उनको शून्य नहीं माना जाएगा। मूल अधिकार एवं कर्त्तव्य
बीकाजी नारायण बनाम मध्य प्रदेश राज्य (1955) के बाद में सर्वोच्च न्यायालय ने ‘आच्छादान का सिद्धांत’ प्रतिपादित किया और स्पष्ट किया कि ऐसे सभी कानून पूरी तरह से समाप्त नहीं होंगे। वास्तव में यह मौलिक अधिकारों के द्वारा छायांकित हो जाता है और तात्कालिक रूप से अप्रभावी हो जाता है। यह एक अच्छा कानून है, जब संविधान के लागू होने से पूर्व लागू अधिकारों व कर्तव्यों के निधारण का प्रश्न उठता है। साथ ही साथ, यह उन व्यक्त्यिों के अधिकारों के निर्धारण हेतु महत्वपूर्ण हैं, जिन्हें संविधान के तहत मौलिक अधिकार प्राप्त नहीं हैं। मूल अधिकार एवं कर्त्तव्य
जब किसी अगले संशोधन द्वारा मौलिक अधिकारों द्वारा निर्मित छाया समाप्त हो जाती है,तब उस छाया से आच्छादित कानून के वे भाग पुनः जीवंत व प्रभावी हो जाते हैं। पहले सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि आच्छादान का सिद्धांत’ संविधान पूर्व कानूनों पर ही लागू किया जा सकता है। परंतु गुजरात रान्य बनाम श्री अविका मिला (1974) के वाद में न्यायालय ने एण्ट किया कि यह सिद्धांत संविधान के पश्चात बने कानूनों पर भी लागू किया जा सकता है।
अनुच्छेद 20- अपराधों के दोषसिद्धि के संबंध में संरक्षण :
(i) किसी व्यक्ति को किसी अपराध के लिए तब तक दोषी नहीं ठहराया जा सकता, जब तक उसने अपराध के समय में प्रवर्तित किसी कानून का उल्लंघन न किया हो।
(ii) किसी व्यक्ति को किसी अपराध के लिए विधि द्वारा निर्धारित दंड से अधिक दंड नहीं दिया जा सकता। एक अपराध के लिए एक से अधिक बार दंड नहीं दिया जा सकता।
(iii) किसी अभियुक्त को स्वयं अपने विरुद्ध साक्ष्य देने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता।
अनुच्छेद 21- प्राण और दैहिक स्वतंत्रता का संरक्षण :
इस अनुच्छेद में कहा गया है कि किसी व्यक्ति को उसके प्राण या दैहिक स्वतंत्रता से विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही वंचित किया जायेगा, अन्यथा नहीं।
44वें संविधान संशोधन द्वारा यह उपबंध किया गया है कि, “आपातकाल की स्थिति में भी जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार को समाप्त या सीमित नहीं किया जा सकता।”
प्राण की स्वतंत्रता के अंतर्गत उन स्वतंत्रताओं को सम्मिलित किया जाता है, जो व्यक्ति के जीवन को अर्थपूर्ण, गरिमायुक्त, सार्थक और पूर्ण बनाती हैं। दैहिक स्वतंत्रता के अंतर्गत अवैध गिरफ्तारी, अवैध पुलिस निगरानी या अवैध निरोध से व्यक्ति को संरक्षण प्रदान किया गया है।
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मूल अधिकार एवं कर्त्तव्य
मूल कर्तव्य Drishti IAS
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