मूल अधिकार एवं कर्त्तव्य भारतीय संविधान के भाग-3 के अनुच्छेद 12 से 35 तक मौलिक अधिकारों का विस्तृत वर्णन किया गया है। डॉ. अम्बेदकर ने मूल अधिकारों से संबंधित संविधान के भाग-3 को “सर्वाधिक आलोकित भाग” कहा था। इन अधिकारों का निर्धारण संविधान सभा द्वारा गठित एक समिति द्वारा किया गया, जिसके अध्यक्ष सरदार वल्लभ भाई पटेल थे।
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मूल अधिकार एवं कर्त्तव्य | Fundamental Rights and Duties
मौलिक अधिकारों का निलम्बन :
मौलिक अधिकारों का निलम्बन या परिसीमन निम्न प्रकार से किया जा सकता है:
(1) मूल अधिकारों पर युक्तियुका निर्बन्धन (Reasonable Restrictions) अधिरोपित किये जा सकते हैं, जिसके सम्बंध में अनुच्छेद 19(2) से 19(6) में प्रावधान किया गया है:
(2) अनुच्छेद 15(1) तथा 15(4) के अनुसार सामाजिक उद्देश्यों के प्रर्वतन, जैसे महिलाओं, बच्चों तथा पिछड़ी जातियों के कल्याण के लिए राज्य मूल-अधिकारों में हस्तक्षेप कर सकता
(3) अनुच्छेद 34 के अनुसार जब किसी क्षेत्र में सेना विधि प्रवर्तन में हो, तब संसद विधि द्वारा मूल अधिकारों पर निबन्धन अधिरोपित कर सकती है।
(4) जब देश में अनुच्छेद 352 के अधीन राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा की गयी हो, तब अनुच्छेद 19 द्वारा प्रदत मूल अधिकारों का स्वतः निलम्बन हो जाता है और राष्ट्रपति अधिसूचना जारी करके अन्य मूल अधिकारों को समाप्त कर सकता है, लेकिन अनुच्छेद 20 तथा 21 द्वारा प्रदत अधिकार किसी भी परिस्थिति में समाप्त नहीं किये जा सकते।
(5) संसद सविधान में संशोधन करके मूल अधिकारों को निलम्बित कर सकती है, लेकिन ऐसा करते समय वह संविधान के मूल ढांचे को नष्ट नहीं कर सकती। मूल अधिकार एवं कर्त्तव्य
मौलिक अधिकारों का उपान्तरण :
संविधान के भाग-3 के अनुच्छेद 33 द्वारा संसद को उपान्तरण की शक्ति प्रदान की गयी है। संसद अपनी इस शक्ति के प्रयोग से निम्नलिखित व्यक्तियों के संबंध में मौलिक अधिकारों को उपान्तरित करके यह व्यवस्था कर सकती है कि किस सीमा तक इन व्यक्तियों को मौलिक अधिकार प्राप्त होंगे
(i) सशस्त्र बलों के सदस्यों को,
(ii) लोक व्यवस्था बनाये रखने के लिए उत्तरदायी सुरक्षा बलों के सदस्यों
(iii) अधिसूचना या प्रति-आसूचना के उद्देश्य के लिए राज्य द्वारा स्थापित किसी ब्यूरो या अन्य संगठन में नियोजित व्यक्तियों को,
(iv) उक्त तीनों में निर्दिष्ट किसी बल, ब्यूरो या संगठन के प्रयोजनों के
लिए स्थापित दूरसंचार प्रणाली या उसके संबंध में नियोजित व्यक्तियों को।
रिट निकालने की शक्ति
अनुच्छेद 32 तथा अनुच्छेद 226 में अंतर
1. उच्च न्यायालय की रिट निकालने की शक्ति उच्चतम न्यायालय की शक्ति की अपेक्षा अधिक व्यापक है। अनुच्छेद 32 के अधीन उच्चतम न्यायालय को केवल मूल-अधिकार के प्रवर्तन के लिए ही रिट निकालने का अधिकार है, जबकि अनुच्छेद 226 के अधीन उच्च न्यायालय को मूल अधिकारों के अलावा सामान्य विधि के उल्लंघन पर भी रिट निकालने की शक्ति प्राप्त है।
2. उच्चतम न्यायालय भारत के राज्य क्षेत्र में किसी भी व्यक्ति या सरकार के विरुद्ध रिट निकाल सकता है। उच्च न्यायालय किसी व्यक्ति, सरकार या प्राधिकारी के विरुद्ध रिट तभी निकाल सकता है जब वह व्यक्ति, सरकार या प्राधिकारी उच्च न्यायालय के राज्यक्षेत्रीय अधिकारिता के भीतर भौतिक रूप से निवास करता है या अवस्थित है। मूल अधिकार एवं कर्त्तव्य
सामाजिक-शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े वर्ग
- संविधान में इसकी परिभाषा नहीं दी गई है। किन्तु अनुच्छेद 340 राष्ट्रपति को सामाजिक व शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े हुए वर्गा की स्थिति की जांच के लिए आयोग गठित करने की शक्ति प्रदान करता है। आयोग की अनुशंसाओं के आधार पर राष्ट्रपति पिछड़े वर्गों का निदर्शन कर सकता है।
- परंतु सरकार के निर्णय का न्यायिक पुनर्विलोकन किया जा सकता
- अनेक आदेशों में सर्वोच्च न्यायालय ने यह स्पष्ट किया है कि ‘पिछड़ापन’ जैसा कि अनुच्छेद 15(4) में पारिभाषित है, सामाजिक व शैक्षणिक, दोनों ही होना चाहिए, न कि केवल एक। गरीबी, व्यवसाय, निवास स्थान, ये सभी ‘पिछड़ेपन’ पर विचार करने हेतु महत्वपूर्ण कारक हो सकते हैं। न्यायालय ने यह स्पष्ट कर दिया है कि केवल जाति अथवा केवल गरीबी सामाजिक पिछड़ेपन को निर्धारित करने का कारक नहीं हो सकती। यद्यपि पिछड़ेपन की परीक्षा का एकमात्र आधार गरीबी नहीं है, तथापि यह सामाजिक पिछड़ापन के संदर्भ में महत्वपूर्ण कारक है।
विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया और विधि की यथोचित प्रक्रिया
विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया का तात्पर्य उन प्रयोगों एवं व्यवहारों से है, जो संविधि या विधि द्वारा प्रतिपादित हैं। इस सिद्धांत के अंतर्गत, न्यायालय किसी विधि की जांच विधायिका की सक्षमता के दृष्टिकोण से करता है तथा यह देखता है कि विधायिका ने निर्धारित प्रक्रियाओं का अनुपालन किया है अथवा नहीं। न्यायालय विधि के उद्देश्य में नहीं जा सकता और उसे तब तक असांविधानिक नहीं घोषित कर सकता है, जब तक उस विधि को विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के बिना पारित न किया गया हो।
अत: न्यायालय विधायिका के सुंदर मंतव्य व जनमत की शक्ति पर अधिक निर्भर करता है। यह सिद्धांत किसी व्यक्ति को केवल कार्यपालिका की कार्यवाहियों से संरक्षण प्रदान करता है। दूसरी और, विधि को यथोचित प्रक्रिया का तात्पर्य है कि न्यायालय को केवल विधायिका की सक्षमता के दृष्टिकोण से ही किसी विधि की जांच नहीं करनी चाहिए, बल्कि विधि के आशय के व्यापक दृष्टिकोण से भी करना चाहिए। मूल अधिकार एवं कर्त्तव्य
इस प्रकार, यह न्यायालय को अधिक शक्ति प्रदान करता है। भारतीय संविधान विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया का प्रतिपादन करता है, किंतु 1978 में मेनका गांधी के बाद में सर्वोच्च न्यायालय ने ‘विधि की यथोचित प्रक्रिया’ इन पदों का समावेश कर अनुच्छेद 21 की व्याख्या की। वर्तमान समय में अनुच्छेद 21 किसी व्यक्ति को विधायिका व कार्यपालिका दोनों की कार्यवाहियों से संरक्षण देता है।
मौलिक अधिकारों में संशोधन
संविधान का सर्वोच्च निर्वचन कर्ता उच्चतम न्यायालय है, साथ ही वह मूल अधिकारों का संरक्षक भी है, इसलिए उसके समक्ष सर्वप्रथम 1951 में ‘शंकरी प्रसाद बनाम बिहार राज्य के मामले में यह प्रश्न उठाया गया कि मौलिक अधिकारों का संशोधन संसद कर सकती है अथवा नहीं। इस संदर्भ में उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया था कि अनुच्छेद 368 में निहित प्रक्रिया के अनुसार संविधान संशोधन विधि के अंर्तगत नहीं आता, अतएव, संसद मूल अधिकारों सहित संविधान के किसी भाग में संशोधन कर सकती है|
उल्लेखनीय है कि मूल अधिकार के संशोधन की प्रक्रिया के संदर्भ में संविधान में कोई प्रावधान नहीं किया गया है। संविधान में संशोधन करने की प्रक्रिया का उल्लेख 368 में किया गया है। लेकिन मौलिक अधिकारों के संशोधन के संदर्भ में अनुच्छेद 368 के उपयोग पर सदैव विवाद रहा है, क्योंकि संविधान के अनुच्छेद 13(2) में यह भी निर्देश दिया गया है कि राज्य ऐसी कोई विधि नहीं बनायेगा, जो मूल अधिकारों को सीमित करती हो।
उच्चतम न्यायालय ने 1967 में ‘गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य के मामले में अपने पूर्व के निर्णय को बदलते हुए यह निर्णय दिया कि, मौलिक अधिकारों को संविधान में सर्वोपरि स्थिति प्रदान की गयी है, इसलिए संसद मौलिक अधिकारों में कोई परिवर्तन नहीं कर सकती।। मूल अधिकार एवं कर्त्तव्य
इस निर्णय से उत्पन्न कठिनाई को दूर करने के लिए संसद ने 1971 में 24वां संशोधन कर यह व्यवस्था कर दी कि संसद, मूल अधिकार सहित संविधान के किसी भी भाग में संशोधन कर सकती है तथा संसद द्वारा किये गये संविधान संशोधन को अनुच्छेद 13 के अधीन विधि नहीं माना जायेगा। 24वें संविधान संशोधन की संवैधानिकता को 1973 में ‘केशवानंद भारती बनाम करल राज्य के मामले में चुनौती दी गयी। उच्चतम न्यायालय ने इस मामले की सुनवाई के लिए 13 सदस्यीय खंडपीठ का गठन किया। इस खंडपीठ ने 7:6 के बहुमत से निर्णय दिया कि :
(i) संसद को मूल अधिकारों में संशोधन की शक्ति प्राप्त है और संवैधानिक संशोधन अनुच्छेद 13(2) में प्रयुक्त विधि के अंतर्गत शामिल नहीं है।
(ii) संसद को संविधान में संशोधन करने की व्यापक शक्ति प्राप्त है, लेकिन वह इस शक्ति का प्रयोग करके संविधान के मूल ढांचे को नष्ट नहीं कर सकती। इस प्रकार न्यायालय द्वारा संविधान के मूल ढांचे की अवधारणा को अस्तित्व में लाया गया।
केशवानंद भारती मामले में दिये गये निर्णय से उत्पन्न कठिनाइयों को दूर करने के लिए संविधान में 1976 में 42वां संशोधन करके यह व्यवस्था की गयी कि
(i) संसद द्वारा किये गये संविधान संशोधन की वैधता को किसी भी आधार पर न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती तथा
(ii) संसद की संविधान संशोधन की शक्ति पर कोई परिसीमा नहीं होगी।
संविधान के उस संशोधन की विधिमान्यता को ‘मिनर्वा मिल बनाम भारत संघ के मामले में चुनौती दी गयी, जिसमें पांच न्यायाधीशों की एक खंडपीठ ने निर्णय दिया कि संविधान में संशोधन करके की जाने वाली उक्त व्यवस्था असंवैधानिक है तथा संसद संविधान के संशोधन के माध्यम से संविधान के मूल ढांचे में कोई परिवर्तन नहीं कर सकती है। यही मत उच्चतम न्यायालय ने अन्य कई मामलों के निर्णयों में व्यक्त किया।
इस प्रकार संसद द्वारा कानून निर्माण की शक्ति को सीमित कर दिया गया है और संसद द्वारा निर्मित कानूनों तथा संशोधनों की न्यायपालिका द्वारा जांच की जा सकती है। मूल अधिकार एवं कर्त्तव्य
प्रेस की स्वतंत्रता:
हमारे संविधान में प्रेस की स्वतंत्रता की प्रत्याभूति देने के लिए कोई विनिर्दिष्ट उपबंध नहीं है। न्यायिक निर्णयों द्वारा प्रतिपादित किया गया है कि अनुच्छेद 19(1) (क) के अधीन प्रत्याभूत वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अनर्गत प्रेस की स्वतंत्रता शामिल है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का तात्पर्य है किसी भी साधन द्वारा जिसमें मुद्रण भी सम्मिलित है, केवल अपने विचार ही नहीं, बल्कि दूसरों के विचार को भी अभिव्यक्त करने की स्वतंत्रता। प्रेस की स्वतंत्रता के अंतर्गत निम्न तीन तत्व शामिल किये जाते हैं
(i) सूचना के सभी स्रोतों तक पहुंचने की स्वतंत्रता,
(ii) सूचना को प्रकाशित करने की स्वतंत्रता तथा
(iii) प्रकाशित सामग्री के प्रचार, विक्रय तथा प्रचार की स्वतंत्रता।
प्रेस की यह स्वतंत्रता आत्यातिक नहीं है। यह अनुच्छेद 19 के खंड(2) में अंतर्विष्ट परिसीमाओं के अधीन है। रान्य, प्रेस की स्वतंत्रता पर राज्य की सुरक्षा, भारत की प्रभुता और अखंडता, विदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंधों, लोक व्यवस्था, शिष्टाचार या सदाचार अथवा न्यायालय की अवमानना, मानहानि या अपराध उद्दीपन के संबंध में विधियाँ बना सकता है। वस्तुत: भारत में प्रेस को कोई विशेषाधिकार प्राप्त नहीं है। प्रेस की स्वतंत्रता के लिए भी वही मापदंड है, जो सामान्य नागरिकों के लिए।
मूल अधिकार एवं कर्त्तव्य : मूल अधिकार एवं कर्त्तव्य : मूल अधिकार एवं कर्त्तव्य : मूल अधिकार एवं कर्त्तव्य
मूल अधिकार एवं कर्त्तव्य
मूल कर्तव्य Drishti IAS
मूल कर्तव्य कितने हैं
मूल अधिकार कितने हैं
मूल अधिकार PDF
मूल कर्तव्य PDF
इन्हें भी पढ़ें –
- मूल अधिकार एवं कर्त्तव्य | Fundamental Rights and Duties [Part-5]
- मूल अधिकार एवं कर्त्तव्य | Fundamental Rights and Duties [Part-4]
- मूल अधिकार एवं कर्त्तव्य | Fundamental Rights and Duties [Part-3]
- मूल अधिकार एवं कर्त्तव्य | Fundamental Rights and Duties [Part-2]
- मूल अधिकार एवं कर्त्तव्य | Fundamental Rights and Duties [Part-1]
- राज्य के नीति निर्देशक तत्व | Directive Principles of State Policy [Part-3]
- राज्य के नीति निर्देशक तत्त्व | Directive Principles of State Policy [Part-2]
- राज्य के नीति निर्देशक तत्त्व | Directive Principles of State Policy [Part-1]