मूल अधिकार एवं कर्त्तव्य भारतीय संविधान के भाग-3 के अनुच्छेद 12 से 35 तक मौलिक अधिकारों का विस्तृत वर्णन किया गया है। डॉ. अम्बेदकर ने मूल अधिकारों से संबंधित संविधान के भाग-3 को “सर्वाधिक आलोकित भाग” कहा था। इन अधिकारों का निर्धारण संविधान सभा द्वारा गठित एक समिति द्वारा किया गया, जिसके अध्यक्ष सरदार वल्लभ भाई पटेल थे।
मूल अधिकार एवं कर्त्तव्य | Fundamental Rights and Duties
सूचना का अधिकारः
प्रशासन में खुलापन एवं पारदर्शिता लाने एवं उसे जवाबदेह बनाने के उद्देश्य से सूचना की स्वतंत्रता विधेयक को संसद ने पारित कर दिया है। इस विधेयक के पारित हो जाने से सरकार से सूचनाएं प्राप्त करने का अधिकार अधिकारिक रूप से नागरिकों को प्राप्त हो जायेगा।
विधेयक पर चर्चा के दौरान कार्मिक एवं लोक शिकायत राज्यमंत्री वसुंधरा राजे ने राज्य सभा में बताया कि इससे सरकारी काम काज में पारदर्शिता आवेगी तथा भ्रष्टाचार पर अंकुश लगेगा। उन्होंने स्पष्ट किया कि यह विधेयक ऑफिशियल सीक्रेट्स एक्ट के प्रावधानों व मंत्रियों द्वारा ली गयी गोपनीयता की शपथ के प्रतिकूल नहीं है। मूल अधिकार एवं कर्त्तव्य
इस विधेयक की कानूनी रूप लेने के साथ ही सरकारी विभाग को संस्थान के क्रिया-कलापों के बारे में आमलोगों को जानकारी एवं सूचनाएं उपलब्ध कराने हेतु एक सूचना अधिकारी की नियुक्ति को अनिवार्य बना दिया गया है। सूचना अधिकारी के लिए यह आवश्यक होगा कि किसी व्यक्ति द्वारा निर्धारित शुल्क चुकाने पर 30 दिन के भीतर उसे वांछित सूचनाएं उपलब्ध कराय।
सूचना का अधिकार विधेयक पारित होने के साथ ही भारत विश्व के उन 20 विशिष्ट देशों में शामिल हो गया, जहां नागरिकों को सूचना का अधिकार प्राप्त है।
मादक पदार्थ ब्यूरो, राजस्व सुफिया निदेशालय, रिसर्च एंड एनालिसिस किंग, खुफिया ब्यूरो, केंद्रीय सुरक्षा बल सहित सरकार के ।। अति संवेदनशील विभागों को इस कानून के दायरे से मुक्त रखा गया है। निजी क्षेत्र को भी इस विधेयक के दायरे से बाहर रखा गया है। मूल अधिकार एवं कर्त्तव्य
उल्लेखनीय है कि देश के 7 राज्यों में संसद द्वारा विधेयक के पारित होने से पूर्व ही सूचना के अधिकार का कानून बन चुका है। इन राज्यों में तमिलनाडु, गोवा, राजस्थान, कर्नाटक, महाराष्ट्र, असम एवं दिल्ली सम्मिलित हैं। इसके अलावा मध्य प्रदेश में अनेक महत्वपूर्ण सरकारी निकायों में सूचना के अधिकार संबंधी व्यापक प्रशासनिक आदेश जारी किये जा चुके हैं।
संपत्ति का अधिकार:
संपत्ति का अधिकार सर्वाधिक जटिल तथा विवादास्पद सिद्ध हुआ है। संविधान सभा में भारत के संविधान के निर्माण को विभिन्न प्रावस्थाओं के दौरान सम्पत्ति संबंधी उपबंध सर्वाधिक विवादास्पद सिद्ध हुए थे। अंतत: सम्पत्ति के अधिकार को मूल अधिकार के रूप में मान्यता दी गयी। संविधान के अनुच्छेद 19(1) (च) तथा अनुच्छेद 31 में सम्पति के मूल अधिकार को समाविष्ट किया गया। मूल अधिकार एवं कर्त्तव्य
संविधान के लागू होने के बाद भी सम्पत्ति संबंधी उपबंध विवादास्पद बने रहे। इसके कारण विधायिका तथा न्यायपालिका के बीच जबर्दस्त टकराव की स्थिति उत्पन्न हो गयी और उसकी वजह से संविधान में अनेक संशोधन करने पड़े। अंततः संविधान (44वां) संशोधन अधिनियम, 1978 के द्वारा अनुच्छेद 19(1) (च) तथा अनुच्छेद 31 को निरस्त करके सम्पत्ति के मूल अधिकार को समाप्त कर दिया गया। इसी संशोधन के द्वारा संविधान के भाग-12 में एक नया अध्याय अध्याय-4 और एक नया
अनुच्छेद 300(क) जोड़कर सम्पत्ति के अधिकार को कानूनी (विधिक) अधिकार बना दिया गया। इस अनुच्छेद के अनुसार संपत्ति का अधिकार अब केवल कानूनी अधिकार है, जिसका तात्पर्य है कि राज्य को किसी व्यक्ति की सम्पत्ति को लेने का अधिकार है, लेकिन ऐसा करने के लिए उसे किसी विधि का प्राधिकार प्राप्त होना चाहिए। इस प्रकार अनुच्छेद 300(क) कार्यपालिका की कार्यवाही के विरुद्ध संरक्षण प्रदान करता है, किंतु विधायिका के निर्णय के विरुद्ध संरक्षण प्रदान नहीं करता।
संपत्ति के मूल अधिकार में किये गये विभिन्न संशोधन निम्न है
(1) प्रथम संशोधन 1951: इसमें यह निश्चित कर दिया गया कि जमींदारी के अंत से संबंधित विधेयक मुआवजे की व्यवस्था के न होते हुए भी वैध समझे जायेंगे।
(2) चतुर्थ संशोधन 1955: अनुच्छेद 31 के अंतर्गत राज्य सार्वजनिक उद्देश्य के लिए निजी सम्पत्ति पर कब्जा कर सकता था, पर उसके लिए जरूसी था कि जिस व्यक्ति को सम्पत्ति से बाँचत किया जाये उसे उसका उचित मुआवजा मिले। चौथे संशोधन द्वारा यह व्यवस्था की गयी कि मुआवजे की रकम पर्याप्त है या नहीं, इस संबंध में न्यायालयों को निर्णय देने का कोई अधिकार नहीं होगा।
(3) 25वां संशोधन 1971: इस संशोधन द्वारा अनुच्छेद 31 को संशोधित कर तथा अनुच्छेद 316 में कुछ शब्दों को जोड़कर यह व्यवस्था की गयी कि सम्पत्ति के सार्वजनिक दृष्टि से अर्जन और उसके मुआवजे की राशि को न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती। मूल अधिकार एवं कर्त्तव्य
(4) 29वां संशोधन 1972: इस संशोधन द्वारा यह निश्चित किया गया कि यदि भूमि के सीमाकरण से व्यक्तिगत जोत की भूमि भी प्रभावित होती है, तो राज्य के द्वारा वह भूमि अधिग्रहित की जा सकती है। इसी प्रकार 34 संशोधन, 1974 तथा 40वां संशोधन, 1976 भी इसी संदर्भ में थे। मूल अधिकार एवं कर्त्तव्य
अनुसूचित जातियों/अनुसूचित जनजातियों के लिए संविधानिक संरक्षण
एक समतामूलक समाज की स्थापना का उद्देश्य भारतीय संविधान का आधारभूत तत्व है। अनुच्छेद 15 सार्वजनिक स्थानों में प्रवेश हेतु किसी भी प्रकार की अयोग्यता का उन्मूलन करता है। अनुच्छेद 16 में अवसर की समानता का प्रावधान है, जिसे राज्य के अधीन किसी नियोजन तथा नियुक्ति के संबंध में अनुसूचित जातियों व अनुसूचित जनजातियों के संरक्षण के उपायों से अधिक समृद्ध बनाया गया है।
अनुच्छेद 17 अस्पृश्यता का उन्मूलन करता है और अब यह प्रावधान है कि स्वयं को निर्दोष सिद्ध करने का उत्तरदायित्व अभियुक्त का है, न कि पीड़ित व्यक्ति का। इन समुदायों को उनकी संपत्ति से तब तक वंचित नहीं किया जा सकता, जब तक इसके लिए वर्णित प्राधिकरण इसकी अनुमति नहीं देता (अनुच्छेद 19(5) अनुच्छेद 46 (नीति निदेशक तत्व) कहता है कि अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों के हितों का अवश्य संरक्षण किया जाना चाहिए। मूल अधिकार एवं कर्त्तव्य
राष्ट्रपति को यह शक्ति प्राप्त है कि संविधान संशोधन की दशा में प्रत्येक राज्य के राज्यपाल से परामर्श कर अनुसूचित जातियों व अनुसूचित जनजातियों की सूची जारी कर सकता है। (अनुच्छेद 341-342) ‘राष्ट्रीय अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति आयोग का गठन 1995 में 65वें संविधान संशोधन अधिनियम के द्वारा किया गया। (अनुच्छेद 338) अनुसूचित क्षेत्रों के काम-काज तथा उन क्षेत्रों में अनुसूचित जनजातियों के कल्याण के पुनर्विलोकन के लिए राष्ट्रपति एक आयोग का गठन कर सकता है।
अनुसूचित जातियों के कल्याण हेतु उनका निर्धारण तथा योजनाओं के क्रियान्वयन के लिए राष्ट्रपति किसी राज्य को निर्देश दे सकता है। राज्यों को केंद्र द्वारा दी जाने वाली वितीय सहायता का एक आधार यह भी है कि राज्य अनुसूचित जातियों व अनुसूचित जनजातियों के कल्याण की योजनाओं के व्यय की पूर्ति के लिए अपने दायियों का निर्वाह कैसे करता है। संविधान की पांचवी तथा छठी अनुसूचियों में विशेष प्रावधान किए गए हैं, जो अनुसूचित जनजातियों के निवास क्षेत्रों के लिए बने अनुच्छेद 244 के साथ गठित होते हैं।
विहार, मध्य प्रदेश और उड़ीसा जैसे राज्यों में अनुसूचित जातियों व अनुसूचित जनजातियों और अन्य पिछड़े वर्गों के कल्याण के लिए प्रभारी मंत्री होंगे। अनुसूचित जातियों व अनुसूचित जनजातियों के लिए कुछ सीटें व चुनाव क्षेत्र आरक्षित है। यह एक अल्पकालिक प्रावधान है, जिसे अब तक प्रत्येक 10 वर्षों के लिए बढ़ाया जाता रहा है। 9 वें संविधान संशोधन (2003) द्वारा राष्ट्रीय अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति आयोग का स्थान, राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग व राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग ने ले लिया।
मूल-कर्तव्य मूलत:
संविधान में नागरिकों के मूल कर्तव्यों का कोई उल्लेख नहीं था। संविधान के लिए गठित स्वर्ण सिंह समिति की रिपोर्ट के आधार पर 1976 में 42वें संविधान द्वारा संविधान में भाग 4(क) तथा अनुच्छेद 51(क) को जोड़कर मूल कर्तव्यों को शामिल किया गया। यद्यपि विश्व के बहुत से देशों यथा- जापान, चीन और इटली सहित अनेक यूरोपीय देशों के संविधानों में अधिकारों के साथ-साथ कर्तव्यों का भी उल्लेख है, तथापि भारतीय संविधान में सम्मिलित मूल कर्तव्य का प्रावधान पूर्व सोवियत रूस के संविधान से लिया गया है। मूल अधिकार एवं कर्त्तव्य
भारतीय संविधान में मूल रूप से 10 मूल कर्तव्यों का उल्लेख था, परंतु छियासीवें संविधान संशोधन अधिनियम द्वारा ग्यारहवें मूल कर्तव्य को जोड़ा गया। इनके अनुसार प्रत्येक भारतीय नागरिक का कर्तव्य होगा कि वहः
(i) संविधान का पालन करें और उसके आदर्शों, संस्थाओं, राष्ट्रध्वज और राष्ट्रगान का आदर करे:
(ii) स्वतंत्रता के लिए हमारे राष्ट्रीय आंदोलन को प्रेरित करने वाले उच्च आदर्शों को हृदय में संजोए रखें और उनका पालन करें;
(iii) भारत की प्रभुता, एकता और अखांडता की रक्षा करे और उसे अक्षुण्ण रखो
(iv) देश की रक्षा करें और आह्वान किये जाने पर राष्ट्र की सेवा के लिए तत्पर रहे,
(v) भारत के सभी लोगों में समरसता और समान भ्रातृत्व की भावना का निर्माण करे जो धर्म, भाषा और प्रदेश या वर्ग पर आधारित सभी भेदभाव से परे हो और ऐसी प्रथाओं का त्याग करे जो स्त्रियाँ
के सम्मान के विरुद्ध है।
(vi) हमारी सामाजिक संस्कृति की गौरवशाली परंपरा का महत्व समझे और उसका परिरक्षण करे;
(vii) प्राकृतिक पर्यावरण की, जिसके अंतर्गत वन, झील, नदी और वन्य जीव हैं, रक्षा करें और उसका संवर्धन करे तथा प्राणिमात्र के प्रतिदया भाव रखे।
(viii) वैज्ञानिक दृष्टिकोण,मानववाद और ज्ञानार्जन तथा सुधार की भावना का विकास करें
(ix) सार्वजनिक सम्पत्ति को सुरक्षित रखे और हिंसा से दूर रहे;
(x) व्यक्तिगत और सामूहिक गतिविधियों के सभी क्षेत्रों में उत्कर्ष की ओर बढ़ने का सतत प्रयास करे, जिससे राष्ट्र निरंतर बढ़ते हुए प्रयत्न और उपलब्धि की नयी ऊंचाई को छू सके।
(xi) यदि माता-पिता या संरक्षक है, छह वर्ष से चौदह वर्ष तक की आयु वाले अपने, यथास्थित, बालक या प्रतिपाल्य के लिए शिक्षा का अवसर प्रदान करें।
मूल-कर्तव्य का महत्व:
अधिकारों एवं कर्तव्य का परस्पर घनिष्ठ संबंध है। ये दोनों ही सामाजिक सांमजस्य के लिए आवश्यक हैं। समाज का उद्देश्य, किसी व्यक्ति का विकास न होकर सभी मनुष्यों के व्यक्तित्व का समुचित विकास है, इसलिए प्रत्येक व्यक्ति के अधिकार के साथ कुछ कर्तव्य जुड़े हुए हैं।
भाग 3 में समाविष्ट मूल अधिकार तथा भाग 4 के निर्देशक तत्व और बाद में जोड़े गये भाग 4(क) के मूल कर्तव्य वास्तव में एक ही समूची व्यवस्था के अंग हैं, जिसका मूल स्रोत है उद्देशिका। ये सभी एक साथ मिलकर वास्तव में मूलभूत मूल्यों को अभिज्ञापित करते हैं तथा संविधान के आधारभूत सिद्धांतों को प्रतिष्ठित करते हैं।
उक्त वर्णित 10 कर्तव्यों में से (i).(iii) तथा (vi) को राजनीतिक कर्तव्यों की श्रेणी में रखा जा सकता है, (vii) तथा (ix) को विशेष कर्तव्यों की श्रेणी में एवं अन्य को नागरिकों के नैतिक कर्तव्यों की श्रेणी में वर्गीकृत किया जा सकता है।
मूल कर्तव्यों का प्रवर्तन:
निर्देशक तत्वों के अंतर्गत राज्य के कर्तव्यों की भाति नागरिकों के कर्तव्यों को भी न्यायालयों द्वारा प्रवर्तित नहीं कराया जा सकता। उनका पालन कराने या उनका उल्लंघन होने पर दंड देने के लिए संविधान में कोई प्रावधान नहीं है। किंतु न्यायालय किसी विधि का, जिसके एक से अधिक निर्वचन हो सकते हों, अर्थ लगाते समय इन्हें निश्चित रूप से ध्यान में रख सकते हैं।
पर्यावरण के संरक्षण से संबंधित अनुच्छेद 51(छ) (जो (vii)वा मूल-कर्तव्य है) विशेष रूप से न्यायालयों के सामने आया है तथा उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया है कि मूल कर्तव्य नागरिकों पर आबद्ध कर हैं।
संविधान में सम्मिलित मूल-कर्तव्यों पर निम्नलिखित आधार पर आक्षेप किए जाते हैं
(i) अस्पष्टताः कुछ आलोचकों का आरोप है कि मूल कर्तव्यों में कुछ ऐसे शब्दों का इस्तेमाल किया गया है, जिनके अनेक अर्थ निकाले जा सकते हैं। समन्वित संस्कृति’, ‘वैज्ञानिक दृष्टिकोण’,’अन्वेषण और सुधार की भावना’ आदि ऐसे शब्द हैं, जिनका अर्थ सर्वथा अस्पष्ट
(ii) पुनरावृत्ति: कुछ ऐसे कर्तव्य हैं जिन्हें मात्र दोहराया गया है। उदाहरण के लिए तीसरा कर्तव्य कहता है कि नागरिकों को भारत की संप्रभुता की रक्षा करनी चाहिए। लगभग यही बात चौथे कर्तव्य के अंतर्गत इन शब्दों में रखी गयी है कि नागरिकों को देश की रक्षा करनी चाहिए।
(iii) दंड का अभावः स्वर्णसिंह समिति के अनुसार मौलिक कर्तव्यों की अवहेलना करने वालों को दंड दिया जाना चाहिए और उसके लिए संसद को उचित कानूनों का निर्माण करना चाहिए। परंतु अभी तक ऐसा कुछ भी नहीं किया गया है। वास्तव में कर्तव्यों के वर्तमान रूप को देखते हुए दंड की व्यवस्था करना अत्यंत कठिन कार्य है। मूल अधिकार एवं कर्त्तव्य
विश्लेषण के बाद अंत में हम इस नतीजे पर पहुंचते है कि कर्तव्यों का पालन कराने का एकमात्र तरीका यह है कि लोगों को नागरिकता के मूल्यों तथा कर्तव्यों के बारे में शिक्षित किया जाये और उनमें पर्याप्त जागृति उत्पन्न की जाये तथा एक ऐसे अनुकूल वातावरण का निर्माण किया जाये, जिसमें प्रत्येक नागरिक अपने संवैधानिक कर्तव्यों का पालन करने तथा समाज के प्रति अपना ऋण चुकाने में गर्व का अनुभव करे। मूल अधिकार एवं कर्त्तव्य
राष्ट्र गौरव अपमान निवारण (संशोधन) अधिनियम 2003:
राष्ट्रीय ध्वज का अपमान करने व राष्ट्रगान में बाधा डालने वाली जैसी हरकतों को अधिक कारगर तरीके से रोकने के लिए 1971 के राष्ट्र गौरव अपमान निवारण अधिनियम (Prevention of Insults to the National Honours Act) में संशोधन कर, इन आरोपों के लिए अधिक कड़े दंड का प्रावधान करने का निर्णय केंद्रीय मंत्रिमंडल द्वारा लिया गया तथा इसे 8 अप्रैल, 2003 को लोकसभा द्वारा पारित कर दिया गया। इसके तहत दूसरे या अधिक बार राष्ट्रीय ध्वज को जानकर अपमान करने या राष्ट्रगान के गायन हेतु एका समूह में व्यवधान उत्पन्न करने के लिए न्यूनतम एक से तीन वर्ष के कारावस, अर्थदंड या येनों का प्रवधान किया गया है। मूल अधिकार एवं कर्त्तव्य
इसके अतिरिक्त अगर कोई राष्ट्रध्वज का अपमान करता है, चाहे वह सैन्य बल से हो या कोई संस्था अथवा कोई व्यक्ति तो उसे यह सजा होगी, बशर्ते कि उसके विरुद्ध संबंधित थाने में प्राथमिकी दर्ज कराई गयी हो। अब सभी को अपनी दुकान या घर पर साल भर राष्ट्रवज फहराने की छूट है। राष्ट्रध्वज संबंधी जानकारी का व्यापक प्रचार के लिए उसे पाठ्यक्रम में शामिल करने के भी निर्देश राज्य सरकारों को दे दिये गये हैं। मूल अधिकार एवं कर्त्तव्य
मूल अधिकार एवं कर्त्तव्य : मूल अधिकार एवं कर्त्तव्य : मूल अधिकार एवं कर्त्तव्य : मूल अधिकार एवं कर्त्तव्य
मूल कर्तव्य Drishti IAS
मूल अधिकार कितने हैं
मूल कर्तव्य कितने हैं
मूल कर्तव्य PDF
मूल अधिकार PDF
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- मूल अधिकार एवं कर्त्तव्य | Fundamental Rights and Duties [Part-2]
- मूल अधिकार एवं कर्त्तव्य | Fundamental Rights and Duties [Part-1]
- राज्य के नीति निर्देशक तत्व | Directive Principles of State Policy [Part-3]
- राज्य के नीति निर्देशक तत्त्व | Directive Principles of State Policy [Part-2]
- राज्य के नीति निर्देशक तत्त्व | Directive Principles of State Policy [Part-1]