राज्य के नीति निर्देशक तत्व : राज्य के नीति निर्देशक तत्व को संविधान के भाग 4(अनुच्छेद 36-51) में समाहित किया गया है। आयरलैंड के संविधान के पूर्वोदाहरण के अलावा कल्याणकारी राज्य की स्थापना का उद्देश्य इसके मूल प्रेरक तत्व रहे हैं।
राज्य के नीति निर्देशक तत्व : Directive Principles of State Policy
संविधान के प्रवर्तन के समय से ही यह माना गया था कि नीति निर्देशक तत्व तथा मूल अधिकार एक-दूसरे के पूरक हैं तथा राज्य के नीति के निर्देशक तत्वों को प्रभावी बनाने के लिए संविधान में संशोधन भी किया जा सकता है। नीति-निर्देशक तत्वों को प्रभावी करने के लिए कई संशोधन भी किए गये, किंतु 1967 ई. में गोलकनाथ के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह निर्णय दिया गया कि संविधान द्वारा प्रदत मूल-अधिकारों में संशोधन नहीं किया जा सकता। राज्य के नीति निर्देशक तत्व
इस निर्णय को अप्रभावी करने के लिए संसद द्वारा 24वां तथा 25वां संविधान संशोधन किया गया। 24वें संशोधन द्वारा संसद को किसी भी अनुच्छेद (मूल अधिकार सहित) में परिवर्तन करने का अधिकार दिया गया। 25वें संशोधन द्वारा अनुच्छेद 31 (ग) जोड़कर यह प्रावधान किया गया कि यदि अनुच्छेद 39 के प्रावधानों को प्रभावी करने के लिए संसद द्वारा कोई संविधान संशोधन किया जाता है, तो इस आधार पर असंवैधानिक घोषित नहीं किया जा सकता कि यह संविधान के अनुच्छेद 14, 19 तथा 31 में प्रत्याभूत मूल अधिकार का उल्लंघन करता है।
नीति निर्देशक तत्व और मूल अधिकार
24वें संशोधन की संवैधानिकता को केशवानन्द भारती मामले में चुनौती दी गयी। इस मामले में निर्णय दिया गया कि निर्देशक तत्वों को प्रभावी करने के लिए संविधान में संशोधन किया जा सकता है, किंतु यह असंवैधानिक घोषित कर दिया कि निर्देशक तत्वों को प्रभावी करने के लिए निर्मित कानूनों को न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती।
इस स्थिति से निबटने के लिए संसद ने 1976 में 42वां संविधान संशोधन कर यह प्रावधान किया गया कि यदि निर्देशक तत्वों को प्रभावी करने के लिए संविधान संशोधन किया जाता है, तो उस कानून को इस आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकती कि वह कानून मूल अधिकारों का उल्लंघन करता है। राज्य के नीति निर्देशक तत्व
इस संशोधन को मिनर्वा मिल मामले में चुनौती दी गयी, जिसमें यह निर्णय दिया गया कि संविधान का यह संशोधन असंवैधानिक है और यह संविधान के मूल डांचे पर आक्षेप करता है। इस निर्णय में यह भी प्रतिपादित किया गया कि नीति निर्देशक तत्व तथा मौलिक अधिकार एक-दूसरे के पूरक हैं तथा इन दोनों के मध्य सांमजस्य और संतुलन संविधान का मूल ढांचा है|
नीति-निर्देशक तत्वों के लागू करने के प्रयास
संविधान के लागू होने के तुरंत बाद से ही नीति निर्देशक सिद्धांतों को लागू करने के प्रयास किए जाते रहे हैं। भूमि सुधार से संबंधित प्रथम संविधान संशोधन वस्तुत: नीति-निर्देशक सिद्धांत को लागू करने के लिए ही किया गया था। इसके पश्चात चौथा, सत्तरहवां पच्चीसा, बयालिसवा तथा चौवालिसवां संविधान संशोधन भी नोति निर्देशक सिद्धांतों को व्यावहारिक रूप देने के लिए ही किये गये। ।
संविधान का 73वाँ संशोधन 1992 नीति निर्देशक सिद्धांत के अनुच्छेद 40 के अनुकरण में ही किया गया। 1990 ई. में काम के अधिकार को मौलिक अधिकार बनाने संबंधी एक प्रस्ताव लाया गया था, जो पारित नहीं हो सका। अनुच्छेद 45 के अनुसरण में शिक्षा को मौलिक अधिकार बनाने हेतु ’93वां संविधान संशोधन विधेयक’ 28 नवंबर 2001 को लोकसभा द्वारा सर्वसम्मति से पारित कर दिया गया। संविधान में एक नयी धारा 21(क) जोड़ी गयी है, जिसके तहत निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा प्राप्त करना 6-14 वर्ष के आयु वर्ग के प्रत्येक भारतीय बच्चे का मौलिक अधिकार होगा। राज्य के नीति निर्देशक तत्व
अनुच्छेद 42 के अनुसरण में काम को न्यायसंगत एवं मानवोचित दशाओं को सुनिश्चित करने के लिए कई कारखाना कानून बनाये गये हैं। राज्य की आर्थिक नीतियों का एक महत्वपूर्ण पक्ष रहा कि कुटीर उद्योगों का विकास किया जाये। इस संदर्भ में कई आयोगों की नियुक्ति हुई है. तथा उनकी सिफारिशों के अनुसरण में अनेक कानून बनाए गये हैं। वर्ष 1990 में ही उद्योगों में कर्मकारों की भागीदारी को सुनिश्चित करने हेतु एक प्रस्ताव प्रस्तुत किया गया था, किंतु तत्कालीन सरकार के पतन के साथ ही इस प्रस्ताव का भी पतन हो गया। राज्य के नीति निर्देशक तत्व
एक समान नागरिक संहिता को लागू करने में सरकारों को सबसे अधिक कठिनाई का समाना करना पड़ा है। इसको तब तक लागू करना कठिन है, जब तक कि सभी प्रमुख धार्मिक वर्ग सामने आकर अपनी सहमति न प्रकट करो उच्चतम न्यायालय ने वर्ष 1995 में सरकार को यह निर्देश दिया था कि समान नागरिक संहिता को लागू करने के अब तक क्या प्रयास किए गये हैं, वह इसपर एक रिपोर्ट पेश करे।
अनुच्छेद 46 के अनुसरण में सरकार द्वारा कई कल्याणकारी कार्यक्रम चलाए गये हैं और चलाए जा रहे हैं, ताकि जनता के दुर्बला वर्गा तथा अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों का शैक्षिक एवं आर्थिक विकास हो। राज्य के नीति निर्देशक तत्व
अनुच्छेद 48 के अनुसरण में कृषि और पशुपालन को आधुनिक और वैज्ञानिक प्रणालियों से संगठित करने का प्रयास किया गया है। इसका सबसे सफल उदाहरण हरित क्रांति, पीली क्रांति तथा श्वेत क्रांति हैं।
अनुच्छेद 48(अ) के अनुसरण में पर्यावरण संरक्षण अधिनियम-1986, राष्ट्रीय वन नीति 1988, आदि पारित किए गये हैं। वन जीव के संरक्षण के लिए कई कानून बनाए गये हैं।
अनुच्छेद 49 के अनुसरण में भी काफी प्रयास किए गये हैं। इस संदर्भ में ताजमहल के संबंध में बनाए गये कानून काफी महत्वपूर्ण
अनुच्छेद 51 के अनुसरण में किए गये भारतीय प्रयासों की अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर काफी सराहना की गयी है। सोमालिया, सिएरा लियोन, बोस्निया आदि में भारतीय शांति रक्षकों का भेजा जाना इसका ज्वलंत उदाहरण है। भारत द्वारा चलाए गये गुटनिरपेक्ष आन्दोलन का अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा की दृष्टि से अपना ही महत्व है। राज्य के नीति निर्देशक तत्व
गोवध से संबंधित प्रस्ताव :
10 अप्रैल, 2003 को लोकसभा द्वारा गोवध को प्रतिबंधित करने वाला निजी प्रस्ताव को ध्वनि मत से स्वीकार किया गया है। इस प्रस्ताव को भाजपा सांसद द्वारा लाया गया तथा कांग्रेस सहित विपक्षी दलों ने इस प्रस्ताव का भारी विरोध करते हुए सदन का बहिष्कार किया। चूंकि पशुपालन राज्य सूची का विषय है। अत: विपक्षी दलों का मानना है कि केंद्र को इस मामले में कानून बनाने का अधिकार नहीं है। राज्य के नीति निर्देशक तत्व
सत्ता पक्ष में भाजपा के अतिरिक्त शिवसेना व समता पार्टी के इक्का-दुक्का सांसद ही सदन में उस समय उपस्थित थे। प्रस्ताव पर चर्चा के दौरान संसदीय कार्य मंत्री श्रीमती सुषमा स्वराज ने स्पष्ट किया कि यह कोई विधेयक नहीं है, बल्कि एक प्रस्ताव है जो सदन की भावना को दर्शाता है।
उन्होंने बताया कि यह चौथी बार है जब इस आशय का प्रस्ताव सदन में स्वीकार किया गया है। इसी संदर्भ में उन्होंने बताया कि ऐसा ही प्रस्ताव उस समय भी स्वीकार किया गया था जब कांग्रेस के ही शिवराज पाटिल सदन की अध्यक्षता कर रहे थे। उन्होंने यह भी उल्लेख किया कि गोवध पर रोक संविधान के भाग-4 के नीति निदेशक तत्वों में शामिल है। पशुपालन को राज्य सूची में होने के कारण गोवध पर प्रतिबंध संबंधी कानून केंद्र द्वारा बनाने की असमर्थता को भाजपा के सदस्यों ने भी सदन में स्वीकार किया। इस स्थिति से निपटने के लिए भाजपाइयों ने संविधान संशोधन की भी बात की है।
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