संविधान का निर्माण | Making of Constitution
किसी प्रभुता सम्पन्न लोकतांत्रिक राष्ट्र के संविधान की रचना का कार्य सामान्यत: उसकी जनता के प्रतिनिधि निकाय द्वारा किया जाता है। संविधान पर विचार करने तथा उसे अंगीकार करने के लिए जनता द्वारा चुने गये इस प्रकार के निकाय को ‘संविधान सभा’ कहा जाता है।
संविधान के निर्माण का विचार
संविधान सभा का विचार भारत में राष्ट्रीय आन्दोलन के विकास के साथ जुड़ा रहा है। 1885 ई. में कांग्रेस के गठन के बाद से धीरे-धीरे भारतीयों के मन में यह धारणा बनने लगी कि भारत के लोग स्वयं अपने राजनीतिक भविष्य का निर्णय करें। इस धारणा को सर्वप्रथम अभिव्यक्ति 1895 में उस ‘स्वराज विधेयक’ में मिली, जिसे लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के निर्देशन में तैयार किया गया था। आगे चलकर 1922 में महात्मा गांधी ने इस बात पर बल दिया कि “भारतीय संविधान भारतीयों के इच्छानुसार ही होगा।” 1922 में ही श्रीमती एनी बेसेंट की पहल पर केन्द्रीय विधान मंडल के दोनों सदनों के सदस्यों की एक संयुक्त बैठक शिमला में आयोजित की गयी, जिसमें संविधान निर्माण के लिए एक सम्मेलन बुलाने का निर्णय लिया गया।
जनवरी 1925 में हुए सर्वदलीय सम्मेलन में ‘कॉमनवेल्थ ऑफ इंडिया बिल’ प्रस्तुत किया गया, जो संवैधानिक प्रणाली की रूपरेखा प्रस्तुत करने का प्रथम प्रमुख प्रयास था। 1924-25 में राष्ट्रीय मांग के संबंध में मोती लाल नेहरू के प्रसिद्ध प्रस्ताव को स्वीकार किया जाना एक ऐतिहासिक घटना थी, क्योंकि केन्द्रीय विधान मंडल ने पहली बार इस मांग का समर्थन किया कि भारत का भावी संविधान भारतीयों द्वारा स्वयं बनाया जाना चाहिए। नवम्बर 1927 में जब साइमन कमीशन नियुक्त किया गया तो इसमें भारतीय सदस्य नहीं होने के कारण उसका घोर विरोध किया गया। इसके साथ लाई बर्कनहेड की चुनौती के प्रत्युत्तर में 19 मई, 1928 को बम्बई में आयोजित सर्वदलीय सम्मेलन ने “भारत के संविधान के सिद्धांत निर्धारित करने के लिए” मोती लाल नेहरू की अध्यक्षता में एक समिति नियुक्त की।
10 अगस्त, 1928 को पेश की गयी समिति की रिपोर्ट ‘नेहरू रिपोर्ट’ के नाम से प्रसिद्ध हुई। यह भारतीयों द्वारा अपने देश के लिए सर्वागपूर्ण संविधान बनाने का प्रथम प्रयास था। उल्लेखनीय है कि संसद के प्रति उत्तरदायी सरकार, अदालतों द्वारा लागू कराए जा सकने वाले मूल अधिकार, अल्पसंख्यकों के अधिकार सहित मेटे तौर पर जिस संसदीय व्यवस्था की संकल्पना 1928 के नेहरू रिपोर्ट में की गयी थी, उसे लगभग ज्यों का त्यों भारतीय संविधान में अपनाया गया।
जून 1934 में कांग्रेस कार्यकारिणी ने घोषणा की कि श्वेत पत्र (गोलमेज सम्मेलनों के बाद जारी किया गया श्वेत पत्र) का एकमात्र विकल्प यह है कि वयस्क मताधिकार के आधार पर निर्वाचित संविधान सभा द्वारा एक संविधान तैयार किया जाये। यह पहला अवसर था जब संविधान सभा के लिए औपचारिक रूप से एक निश्चित मांग प्रस्तुत की गयी। भारत सरकार अधिनियम 1935 के प्रवर्तन के बाद कई राज्यों में गठित कांग्रेसी सरकारों द्वारा भी प्रस्ताव पारित कर संविधान सभा की मांग की गयी। कांग्रेस ने 1936 के लखनऊ अधिवेशन में प्रस्ताव पारित कर घोषणा की कि “किसी बाहरी सत्ता द्वारा थोपा गया कोई भी संविधान भारत स्वीकार नहीं करेगा।” इसके बाद 1937 तथा 1938 के वार्षिक अधिवेशनों में भी संविधान सभा की मांग को दुहराया गया। 1939 में विश्व युद्ध छिड़ने के बाद संविधान सभा की मांग को 14 सितंबर, 1939 को कांग्रेस कार्यकारिणी द्वारा जारी किए गये वक्तव्य में दोहराया गया।
1940 के ‘अगस्त प्रस्ताव’ में ब्रिटिश सरकार ने संविधान सभा की मांग को पहली बार अधिकारिक रूप से स्वीकार किया, भले ही स्वीकृति आप्रत्यक्ष तथा महत्वपूर्ण शर्तों के साथ थी। क्रिप्स प्रस्ताव में यह स्वीकार किया गया कि भारत में निर्वाचित संविधान सभा का गठन किया जायेगा। क्रिप्स प्रस्ताव की विफलता के बाद द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति तक भारत की संवैधानिक समस्या के समाधान के लिए कोई कदम नहीं उठाया गया। 1945 में द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद मार्च 1946 में ब्रिटेन के नये प्रधानमंत्री एटली ने ब्रिटिश मंत्रिमंडल के तीन सदस्यों (सर स्टेफोर्ड क्रिप्स, लार्ड पैथिक लारेंस तथा ए. वी. एलेक्जेंडर) को भारत भेजा, जिसे ‘कैबिनेट मिशन’ कहा गया।
संविधान सभा के गठन के संबंध में कैबिनेट मिशन से पास हुए प्रस्ताव
संविधान सभा के गठन के संबंध में कैबिनेट मिशन ने निम्न प्रस्ताव
(i) प्रत्येक प्रांत को और प्रत्येक देशी रियासत या रियासतों के समूह
को अपनी जनसंख्या के अनुपात में कुल स्थान आवंटित किये गये। स्थूल रूप से 10 लाख के लिए एक स्थान का अनुपात निर्धारित
किया गया।
(ii) प्रत्येक प्रांत के स्थानों को जनसंख्या के अनुपात के आधार पर तीन
प्रमुख समुदायों में बांटा गया। ये समुदाय थे मुस्लिम, सिक्ख और
साधारण।
(iii) प्रतीय विधान सभा में प्रत्येक समुदाय के सदस्यों को एक संक्रमणीय
मत से आनुपातिक प्रतिनिधित्व के अनुसार अपने प्रतिनिधियों का
चुनाव करना था।
(iv) देशी रियासतों के प्रतिनिधियों के चयन की पद्धति परामर्श से तय
की जानी थी।
कांग्रेस द्वारा यह योजना स्वीकार कर ली गयी जबकि मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान की मांग नहीं मानने के कारण इसका विरोध किया।
संविधान सभा की सदस्यों की कुल संख्या 389 निश्चित की गयी, जिसमें से 296 ब्रिटिश प्रांतों के प्रतिनिधि, 4 कमीश्नर क्षेत्रों के प्रतिनिधि तथा 93 देशी रियासत के प्रतिनिधि थे। ब्रिटिश प्रांतों के 296 प्रतिनिधियों में से 213 समान्य,79 मुस्लिम तब 4 सिख थे।
जुलाई 1946 में संविधान सभा का चुनाव हुआ, जिसमें कांग्रेस को 208 तथा मुस्लिम लीग को 73 स्थान प्राप्त हुए। लीग ने अपनी कमजोर स्थिति को देखते हुए संविधान सभा का बहिष्कार करने का निश्चय किया और पृथक संविधान सभा की मांग प्रस्तुत की।
9 दिसम्बर, 1946 को संविधान सभा की प्रथम बैठक हुई, जिसका लीग ने बहिष्कार किया। 3 जून, 1947 के विभाजन योजना के बाद संविधान सभा का पुनर्गठन किया गया। पुनर्गठित सभा में सदस्यों की संख्या 324 नियत की गयी। 31 दिसम्बर, 1947 को संविधान सभा के सदस्यों की कुल संख्या 299 थी।
संविधान सभा की पहली बैठक 9 दिसम्बर 1946 को प्रारंभ हुई। मुस्लिम लीग के सदस्यों ने सभा का बहिष्कार करने की घोषणा कर दी थी, अत: उन्होंने पहली बैठक में भाग नहीं लिया। संविधान सभा की पहली बैठक में ही सच्चिदानन्द सिन्हा को अस्थायी अध्यक्ष निर्वाचित किया गया। दो दिन बाद संविधान सभा के सदस्यों द्वारा डा. राजेन्द्र प्रसाद को संविधान सभा का स्थायी अध्यक्ष निर्वाचित किया गया।
संविधान सभा की कार्यवाही 13 दिसम्बर, 1946 को जवाहर लाल नेहरू द्वारा पेश किये गये उद्देश्य प्रस्ताव के साथ प्रारंभ हुई। उद्देश्य प्रस्ताव में नेहरू ने कहा कि संविधान सभा अपने मजबूत व पवित्र संकल्प के साथ, भारत को एक स्वतंत्र संप्रभु गणराज्य तथा भारत के शासन के लिए एक संविधान तैयार करने की घोषणा करती है। ब्रिटिश भारत व ब्रिटिश भारत से बाहर के भारतीय क्षेत्रों को संयुक्त रूप से भारतीय संघ कहा जाएगा। सम्पूर्ण सत्ता व प्राधिकार लोगों (नागरिकों) में निहित होगा। नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म एवं उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समानता प्राप्त होगी। 22 जनवरी, 1947 को संविधान सभा द्वारा उद्देश्य प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया गया। उद्देश्य प्रस्ताव की स्वीकृति के बाद संविधान सभा ने संविधान निर्माण की विभिन्न पहलुओं पर विचार करने के लिए अनेक समितियों का गठन किया। सभा की सम्पूर्ण कार्यवाही लोकतांत्रिक थो, सक्रिय वाद-विवाद के बाद की इसकी प्रक्रिया पूरी हुई। संविधान की स्वीकृति के बाद संविधान के कुछ अनुच्छेद 26 नवम्बर, 1949 के दिन से ही लागू हो गये, जैसे- नागरिकता, निर्वाचन, अंतरिम संसद, परंतु शेष संविधान को 26 जनवरी, 1950 से अस्तित्व में लाया गया। इसी तिथि से भारत एक गणराज्य के रूप में स्थापित हो गया।
संविधान का निर्माण वर्ष, अनुच्छेद अनुसूचियाँ
सम्पूर्ण संविधान के निर्माण में 2 वर्ष 1 महीने और 18 दिन लगे। संविधान के प्रारूप पर 114 दिनों तक चर्चा हुई। अंतिम रूप से संविधान में 395 अनुच्छेद और आठ अनुसूचियां स्थापित की गयौं। संविधान सभा की अंतिम बैठक 24 जनवरी, 1950 को हुई और उसी दिन संविधान सभा द्वारा डा. राजेन्द्र प्रसाद को भारत का प्रथम राष्ट्रपति चुना गया। संविधान सभा ने और भी कई महत्वपूर्ण कार्य किये जैसे- उसने संविधायी स्वरूप के कतिपय कानून पारित किए, राष्ट्रीय ध्वज को अंगीकार किया, राष्ट्रगान की घोषणा की, राष्ट्रमंडल की सदस्यता से संबंधित निर्णय की पुष्टि की तथा गणराज्य के प्रथम राष्ट्रपति का चुनाव किया। संविधान सभा और प्रभुसत्ताः
संविधान सभा के गठन और उसके द्वारा अपना कार्य प्रारंभ किए जाने के तुरंत बाद ही संविधान सभा की प्रभुसत्ता को लेकर एक विवाद उत्पन्न हो गया। आज भी बहुत से आलोचक संविधान सभा को एक संप्रभु संस्था नहीं मानते हैं। विंस्टन चर्चिल ने संविधान सभा की वैधता को ही चुनौती दे दी। संविधान सभा के सदस्य एम. आर. जयकर ने भी कहा कि “संविधान सभा एक संप्रभु संस्था नहीं है और इसकी शक्तियां मूलभूत सिद्धान्तों एवं प्रक्रियाओं दोनों ही दृष्टियों से मर्यादित हैं।” उनके विचार का आधार था कि चूंकि संविधान सभा का गठन कैबिनेट मिशन के अधीन हुआ है, अत: यह ब्रिटिश संसद की सत्ता के ही अधीन है। यह कैबिनेट योजना में वर्णित संविधान की मूल रूपरेखा में किसी प्रकार का संशोधन करने में अक्षम है।
यह भी माना जा रहा था कि संविधान सभा जो संविधान बनायेगी, उसे ब्रिटिश संसद के पास अनुमोदन के लिए भेजा जायेगा। किंतु संविधान सभा के अधिकांश सदस्यों ने इन प्रतिबंधों को अस्वीकार करते हुए संविधान सभा को सम्प्रभुता सम्पन्न बनाया। इस अवसर पर नेहरू ने विचार व्यक्त किया कि,”आजादी और ताकत के मिलते ही हमारी जिम्मेदारी बढ़ गयी है। संविधान सभा इन जिम्मेदारियों को निभाएगी। संविधान सभा एक पूर्ण संप्रभुत्व- सम्पन्न संस्था है, वह देश के स्वतंत्र नागरिकों का प्रतिनिधित्व करती है|
इस विचार के अनुरूप ही संविधान सभा ने अपनी पूर्ण प्रभुता को प्रदर्शित भी किया। सर्वप्रथम, यह प्रस्ताव पारित किया कि ब्रिटिश सरकार अथवा अन्य किसी सत्ता को संविधान सभा के विघटन का अधिकार नहीं होगा। संविधान सभा तभी भंग होगी, जब यह स्वयं दो-तिहाई बहुमत से उस आशय का प्रस्ताव पारित कर दे। दूसरे, संविधान सभा ने सभा के संचालन की पूर्ण शक्ति अपने निर्वाचित सभापति को समर्पित कर दी।
कुछ आलोचकों ने संविधान सभा के प्रतिनिधिक स्वरूप पर भी आक्षेप किया है। उनका मानना है कि संविधान सभा में जनसाधारण के प्रतिनिधि नहीं थे, यानी सभा के सदस्यों का चुनाव देश के सभी वयस्क नागरिकों ने नहीं किया था। यह सही है कि संविधान सभा के सदस्य वयस्क मताधिकार के आधार पर नहीं चुने गये थे, किंतु इसका यह अर्थ नहीं है कि हम इसे प्रतिनिधिक संस्था न मानें। संविधान सभा में प्रायः सभी संप्रदायों के व्यक्ति थे, अत: इसे प्रतिनिधिक संस्था नहीं मानना उचित नहीं है|
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