संविधान की प्रस्तावना Preamble of the Constitution प्रस्तावना संविधान का मुख्य भाग है या आप इसकी विवरणिका कह सकते हैं| जहाँ से संविधान की पूरी पृष्ठभूमि को संक्षेप में दर्शाया गया है|
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संविधान की प्रस्तावना | Preamble of the Constitution
संविधान की प्रस्तावना (उद्देशिका) मूल आदर्शों, आधारभूत सिद्धांतों और दार्शनिक अभिधारणाओं को मुख्यत: नैतिक रूप में व्यक्त करती है। यह राजनैतिक व्यवस्था का अभीष्ट दिशा का सूचक है। यह संवैधानिक प्रावधानों को औचित्य प्रदान करती है। किसी संविधान की उद्देशिका से आशा की जाती है कि जिन मूलभूत मूल्यों तथा दर्शन पर संविधान आधारित हो, तथा जिन लक्ष्यों और उद्देश्यों की प्राप्ति का प्रयास करने के लिए संविधान निर्माताओं ने राज्य व्यवस्था को निर्देश दिया हो, का उसमें समावेश हो। मूल रूप से संविधान की प्रस्तावना नेहरू द्वारा प्रस्तुत तथा संविधान सभा द्वारा अंगीकृत उद्देश्यों के प्रस्ताव पर आधारित है। भारतीय संविधान की मौजूदा प्रस्तावना इस प्रकार है:
“हम भारत के लोग, भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्वसंपन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा
उसके समस्त नागरिकों को: “सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक न्याय विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म
और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर को समता प्राप्त करने के लिए, तथा उन सबमें
व्यक्ति की गरिमा और
राष्ट्र की एकता और अखंडता सुनिश्चित करने
वाली बंधुता बढ़ाने के लिए दृढ़ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवम्बर 1949 ई. (मिति मार्ग शीर्ष शुक्ल सप्तमी, संवत 2006 विक्रमी) को एतद् द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।”
प्रस्तावना का महत्व
प्रस्तावना में संवैधानिक ढांचे के आधार स्वरूप सिद्धांतों की व्यापक अभिव्यक्ति की गयी है। प्रस्तावना के विभिन्न भागों में उन स्वोतों की चर्चा की गयी है, जिससे संविधान प्राधिकार प्राप्त करता है। वास्तव में न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुता एक वास्तविक लोकतंत्रात्मक व्यवस्था के आधारभूत तत्व होते हैं। अतिम लक्ष्य है व्यक्ति की गरिमा तथा राष्ट्र की एकता सुनिश्चित करना। संविधान की प्रस्तावना
इस प्रकार, उद्देशिका यह घोषणा करने का काम करती है कि “भारत के लोग” संविधान के मूल स्रोत हैं। भारतीय राजव्यवस्था में प्रभुता जनता में निहित है और भारतीय राजव्यवस्था लोकतंत्रात्मक है, जिसमें लोगों को मूल अधिकारों तथा स्वतंत्रता की गारंटी दी गयी है तथा राष्ट्र की एकता सुनिश्चित की गयी है। संविधान की प्रस्तावना
उच्चतम न्यायालय ने अनेक निर्णयों में प्रस्तावना का महत्व और उसकी उपयोगिता बतायी है। बेरूबाड़ी मामले में उच्चतम न्यायालय ने इस बात से सहमति प्रकट की थी कि उद्देशिका संविधान निर्माताओं के मन की कुंजी है। जहाँ शब्द अस्पष्ट पाये जायें या उनका अर्थ स्पष्ट न हो, वहां संविधान निर्माताओं के आशयों को समझने के लिए उद्देशिका की सहायता ली जा सकती है। सन्जन सिंह बनाम राजस्थान राज्य के वाद में न्यायमूर्ति मधोलकर ने कहा था कि उद्देशिका पर “गहन विचार विमर्श” की छाप है तथा उद्देशिका “संविधान की विशेषताओं का निचोड़” है। संविधान की प्रस्तावना
उसी प्रकार गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य के मामले में न्यायमूर्ति हिदायतुल्लाह ने विचार व्यक्त किया कि संविधान की उद्देशिका उन सिद्धांतों का निचोड़ है जिनके आधार पर सरकार को कार्य करना है। वह “संविधान की मूल आत्मा है, शाश्वत है, अपरिवर्तनीय है।” किंतु भले ही उद्देशिका को संविधान का अभिन्न अंग माना जाता है (केशवानन्द भारती बनाम केरल राज्य), फिर भी यह भी अपनी जगह सत्य है कि यह न तो किसी शक्ति का स्रोत है और न ही उसको किसी प्रकार सीमित करता है। उद्देशिका को न्यायालय में प्रवर्तित नहीं किया जा सकता किंतु लिखित संविधान की उद्देशिका में वे उद्देश्य लेखबद्ध किये जाते हैं, जिनकी स्थापना और संप्रवर्तन के लिए संविधान की रचना होती है| संविधान की प्रस्तावना
आपात स्थिति के दौरान 1976 में 42वें संविधान संशोधन अधिनियम के द्वारा ‘समाजवादी’ तथा ‘पंथ निरपेक्ष’ शब्द उद्देशिका में जोड़ दिये गये। इसके अलावा राष्ट्र की एकता’ शब्दों के स्थान पर राष्ट्र की एकता और अखंडता’ शब्द रख दिये गये। 42वें संशोधन के बाद जिस रूप में उद्देशिका इस समय हमारे संविधान में विद्यमान है, उसके अनुसार संविधान निर्माता जिन सर्वोच्च या मूलभूत संवैधानिक मूल्यों में विश्वास करते थे, उन निम्न रूप में सूचीबद्ध किया जा सकता है:
प्रभुत्व संपन्नता
भारत का संविधान ब्रिटिश संसद की देन नहीं है, यद्यपि इसका निर्माण ब्रिटिश योजना (कैबिनेट मिशन) के तहत किया गया था। इसे भारत के लोगों ने एक प्रभुत्वसंपन्न संविधान सभा में समवेत अपने प्रतिनिधियों के माध्यम से अधिनियमित किया था: “हम भारत के लोग………. इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्फित करते हैं। ये शब्द भारत के लोगों की सर्वोच्च प्रभुता की घोषणा करते हैं और इस बात की ओर संकेत करते हैं कि संविधान का आधार उन लोगों का प्राधिकार है। ‘हम भारत के लोग’ के सामान्यत: तीन अर्थ लगाए जाते हैं
(i) अंतिम प्रभुत्व संपन्नता जनता के पास है,
(ii) संविधान के निर्माता जनता के वास्तविक प्रतिनिधि थे, तथा
(iii) भारतीय संविधान का निर्माण भारतीय जनता को स्वीकृति से हुआ है।
26 जनवरी, 1950 को जब संविधान प्रवृत्त हुआ, तब ब्रिटिश संसद या इंग्लैंड के सम्राट का भारत में कोई विधिक या संवैधानिक प्राधिकार नहीं रहा था। संविधान में ‘संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न’ शब्दों का प्रयोग इसी अर्थ में किया गया है कि भारत के आंतरिक तथा वैदेशिक मामलों में भारत सरकार स्वतंत्र तथा सार्वभौम है। कुछ लोग भारत की राष्ट्रमंडल की सदस्यता को भारत की प्रभुत्व संपन्नता के रास्ते में बाधक मानते हैं, लेकिन यह बाधक नहीं है क्योंकि राष्ट्रमंडल की सदस्यता भारत की स्वेच्छा पर निर्भर है जिसे कभी भी छोड़ा जा सकता है। इसके अलावा ब्रिटेन का सम्राट राष्ट्रमंडल का प्रधान अवश्य है, किंतु यह प्रधान पद कंवल
औपचारिक है और इसका संवैधानिक महत्व प्राय: बिल्कुल नहीं है। इस प्रकार राष्ट्रमंडल का सदस्य होते हुए भी भारत ‘संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न’
समाजवादी
समाजवादी शब्द मूलतः उद्देशिका में समाविष्ट नहीं था, बल्कि इसे 42वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1976 के द्वारा संविधान की उद्देशिका में अन्त:स्थापित किया गया। उद्देशिका में प्रयुक्त समाजवादी शब्द का यह तात्पर्य है कि भारतीय नीति का मुख्य लक्ष्य समाजवाद है, जिसका तात्पर्य सामाजिक संगठन के ऐसे सिद्धांत या नीति से है, जो उत्पादन के साधनों, पूंजी, जमीन, सम्पत्ति आदि का सम्पूर्ण समुदाय द्वारा नियंत्रित तथा स्वामित्व का समर्थन करता है तथा सभी के हित के लिए वितरण और प्रशासन की व्यवस्था करता है। संविधान की प्रस्तावना
भारतीय संविधान में किये गये अनेक संशोधनों से यह स्पष्ट होता है कि इसकी प्रगति की दिशा लोकतांत्रिक ही नहीं, सामाजिक आदों की ओर उन्मुख है और इसी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए ये संशोधन किये जाते रहे हैं। संविधान की प्रस्तावना
पंथ निरपेक्ष
अनेक मतों को मानने वाले भारत के लोगों की एकता और उनमें बंधुता स्थापित करने के लिए संविधान में “पंथ निरपेक्ष राज्य” का आदर्श रखा गया है। इसका तात्पर्य है कि राज्य सभी मतों को समान रूप से रक्षा करेगा और स्वयं किसी भी मत को राज्य के धर्म के रूप में मान्यता नहीं देगा। ‘पंथ निरपेक्ष’ शब् को उद्देशिका में 42वें संविधान संशोधन, 1976 द्वारा 3 जनवरी, 1977 से संविधान में जोड़ा गया। पंथ निरपेक्षता को अनुच्छेद 25 से 29 में धर्म की स्वतंत्रता से संबंधित सभी नागरिकों के मूल अधिकार के रूप में समाविष्ट करके क्रियान्वित किया गया है। संविधान की प्रस्तावना
ये अधिकार, प्रत्येक व्यक्ति को अपने धर्म का पालन करने, आचरण करने और प्रसार करने का अधिकार देते हैं तथा राज्य की ओर से तथा राज्य की विभिन्न संस्थाओं की ओर से सभी धर्मों के प्रति पूर्ण निष्पक्षता सुनिश्चित करते हैं। भारत में धर्मनिरपेक्षता का अर्थ, धर्म का विरोध या अधार्मिकता नहीं है। इसका अर्थ है ” सर्वधर्म समभाव” अर्थात सभी धर्मों को समान आदर देना। धर्मनिरपेक्षता में प्रत्येक व्यक्ति को पूजा और प्रचार की पूरी स्वतंत्रता हासिल है, लेकिन राज्य का कोई धर्म नहीं है और वह धर्म के आधार पर किसी भी प्रकार के भेदभाव और पक्षपात का निषेध करता है। संविधान की प्रस्तावना
भारतीय संदर्भ में डोनाल्ड युजीन स्मिथ ने पंथ निरपेक्षता की व्याख्या इस प्रकार की है- ” पंथ निरपेक्ष राज्य वह राज्य है, जो धर्म की व्यक्तिगत तथा समवेत स्वतंत्रता प्रदान करता है, जो संवैधानिक रूप से किसी धर्म विशेष से जुड़ा हुआ नहीं है और जो धर्म का न तो प्रचार करता है तथा न ही उसमें हस्तक्षेप करता है।” संविधान की प्रस्तावना
संविधान की प्रस्तावना
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संविधान का निर्माण | Making of Constitution
भारत के संविधान का विकास | Evolution of the Constitution of India