संविधान की प्रस्तावना Preamble of the Constitution प्रस्तावना संविधान का मुख्य भाग है या आप इसकी विवरणिका कह सकते हैं| जहाँ से संविधान की पूरी पृष्ठभूमि को संक्षेप में दर्शाया गया है|
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संविधान की प्रस्तावना | Preamble of the Constitution
लोकतंत्रात्मक गणराज्य
उदेशिका में “लोकतंत्रात्मक गणराज्य” शब्द का प्रयोग करके यह स्पष्ट किया गया है कि भारत का संविधान भारत में लोकतंत्रात्मक गणराज्य की स्थापना करने का दृढ़ निश्चय करता है। प्रस्तावना में लोकतंत्रात्मक गणराज्य का जो चित्र है वह लोकतंत्र, राजनैतिक और सामाजिक दोनों ही दृष्टिकोणों से है, अर्थात न केवल शासन में लोकतंत्र होगा, बल्कि समाज में भी लोकतंत्र होगा जिसमें न्याय, स्वतंत्रता, समता और बंधुता की भावना होगी। राजशक्ति पर किसी एक वर्ग का एकाधिकार नहीं होगा और शासन का संचालन बहुमत के आधार पर होगा। संविधान की प्रस्तावना
वस्तुत: लोकतंत्रात्मक राज्य का तात्पर्य ऐसे राज्य से है, जिसकी सरकार की स्थापना जनता के द्वारा की जाती है और जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधि जनता के हित के लिए सरकार को संचालित करते हैं। गणराज्य से तात्पर्य ऐसे राज्य से है जिसका प्रमुख निर्वाचित होता है। भारत में संसदीय सरकार की स्थापना करके तथा निर्वाचित राष्ट्रपति को राज्य का प्रमुख बनाकर उद्देशिका के ‘लोकतंत्रात्मक गणराज्य’ को सार्थक बनाया गया है। संविधान की प्रस्तावना
न्याय
न्याय की स्वतंत्रता और रक्षा के लिए भारतीय संविधान निर्माताओं ने न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर विशेष बल दिया है। उद्देशिका में सभी नागरिकों को न्याय का आश्वासन दिया गया है।
न्याय की संकल्पना वस्तुत: अतिव्यापक है-इसमें सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक सभी तरह के न्याय को महत्व दिया गया है। सामाजिक न्याय से अभिप्राय है कि मानव मानव के बीच जाति, वर्ण आदि के आधार पर भेद न किया जाये और प्रत्येक नागरिक को उन्नति का समान अवसर उपलब्ध कराये जाये। आर्थिक न्याय से अभिप्राय है कि उत्पादन एवं वितरण के साधनों का न्यायोचित वितरण हो और धन सम्पदा का केवल कुछ ही हाथों में केन्द्रीकरण न हो। वस्तुतः सामाजिक-आर्थिक न्याय कल्याणकारी राज्य का मूल तत्व है।
संविधान के अनुच्छेद 15, 18, 38, 39 आदि द्वारा इसे सुनिश्चित करने का प्रावधान किया गया है। संविधान की प्रस्तावना राजनीतिक न्याय का अभिप्राय है कि राज्य के अन्तर्गत समस्त नागरिकों को समान रूप से नागरिक और राजनीतिक अधिकार प्राप्त हों। संविधान द्वारा सभी नागरिकों को वयस्क मताधिकार प्रदान कर राजनीतिक न्याय को सुनिश्चित किया गया है। संविधान की प्रस्तावना
स्वतंत्रता
उद्देशिका में स्पष्ट किया गया है कि भारत के नागरिकों को विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता प्रदान की जायेगी। इन स्वतंत्रताओं को प्रदान करने के लिए संविधान के भाग 3 में मौलिक अधिकारों के रूप में व्यापक प्रावधान किये गये हैं तथा इन स्वतंत्रताओं के संरक्षण के लिए स्वतंत्र न्यायपालिका की स्थापना की गयी है। मतदान में भाग लेना, प्रतिनिधियों को चुनना, सरकारी नीतियें की आलोचना करना अदि राजनीतिक स्वतंत्रताएं हैं। संविधान की प्रस्तावना
समता
समता के बिना स्वतंत्रता का कोई महत्व नहीं है, इसलिए संविधान की उद्देशिका में स्पष्ट उल्लेख किया गया है कि भारत के सभी नागरिकों को अवसर तथा प्रतिष्ठा की समता प्रदान की जायेगी। संविधान के भाग-3 के अनुच्छेद 14 से 18 तक में समता के संबंध में व्यापक प्रावधान किया गया है। राजनीतिक विज्ञान के संदर्भ में ‘समानता’ का अर्थ यह नहीं है कि सभी पुरुष तथा स्त्रियां सभी परिस्थितियों में समान हैं।
समानता से अभिप्राय है कि अपने व्यक्तित्व के समुचित विकास के लिए प्रत्येक व्यक्ति के लिए समान अवसर का उपलब्ध होना। इसके अतिरिक्त किसी एक व्यक्ति या वर्ग को अन्य व्यक्तियों या वर्गों के शोषण करने का अधिकार नहीं होना चाहिए। भारतीय संविधान की दृष्टि में सभी व्यक्ति समान हैं तथा उन्हें देश की विधियों का समान रूप से संरक्षण प्राप्त है। संविधान की प्रस्तावना
व्यक्ति की गरिमा तथा राष्ट्रीय एकता और अखंडता
संविधान की उद्देशिका में व्यक्ति की गरिमा की रक्षा को महत्व दिया गया है तथा राष्ट्र की एकता और अखंडता को राज्य और जनता का पहला और अतिम कर्तव्य बताया गया है। उद्देशिका में ‘अखंडता’ शब्द को 1976 के 42वें संशोधन द्वारा अन्त:स्थापित किया गया। संविधान के अनुच्छेद 19 में भारत की एकता तथा अखंडता के हित में युक्तियुक्त प्रतिबंध लगाने का प्रावधान किया गया है। संविधान की प्रस्तावना
बंधुत्व
सर्व सामान्य नागरिकता से संबंधित उपबंधों का उद्देश्य भारतीय बंधुत्व की भावना को मजबूत करना तथा एक सुइङ लोकतंत्र का निर्माण करना है। न्याय, स्वतंत्रता और समानता के आदर्श तभी तक प्रासंगिक और सार्थक होते हैं, जब तक वे भाईचारे तथा एक ही राष्ट्र के अंग होने की भावना को प्रश्रय देते हैं। यह भारत जैसे देश के लिए और भी आवश्यक है क्योंकि यहां के लोग विभिन्न मूलवंश, धर्म, भाषा और संस्कृति वाले
बंधुता का एक अंतर्राष्ट्रीय पक्ष भी है, जो विश्व बंधुत्व की संकल्पना- ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ के प्राचीन आदर्श की ओर ले जाता है। बंधुत्व की भावना को संविधान के मूल कर्तव्यों में यथोचित स्थान प्रदान किया गया है। निष्कर्ष स्वरूप हम कह सकते हैं कि,”उद्देशिका में समाविष्ट विभिन संकल्पनाओं तथा शब्दों से पता चलता है कि हमारी उद्देशिका के उदात्त और गरिमामय शब्द संपूर्ण संविधान के सारांश, दर्शन, आदर्शो और उसकी आत्मा का निरूपण करते हैं।” यह कोई आश्चर्य की बात नहीं कि उच्चतम न्यायालय ने पाया कि उद्देशिका में संविधान की कुछ ऐसी बुनियादी विशेषताएं अंतर्निहित हैं, जिन्हें किसी संशोधन द्वारा बदला नहीं जा सकता।
संविधान का आधारभूत ढांचा संविधान की प्रस्तावना में अनुच्छेद 368 के अधीन संशोधन किया जा सकता है या नहीं, इस प्रश्न पर सर्वप्रथम केशवानन्द भारती बनाम केरल राज्य के मामले में विचार किया गया। इस मामले के निर्णय में कहा गया कि संसद को प्रस्तावना में संशोधन करने की शक्ति प्राप्त है, किंतु संविधान की प्रस्तावना
क्या प्रस्तावना संविधान का भाग है?
1973 के केशवानंद भारतीय बनाम केरल राज्य के बाद में सर्वोच्च न्यायालय ने 1960 के अपने पूर्व निर्णय को निरस्त कर दिया और यह स्पष्ट कर दिया कि प्रस्तावना संविधान का भाग है और संसद की संशोधन करने की शक्ति का विषय उसी प्रकार है, जिस प्रकार संविधान के अन्य प्रावधान हैं, यदि प्रस्तावना में विद्यमान संविधान का मूलभूत ढांचा नष्ट न किया जाए। हालांकि, यह संविधान का अनिवार्य भाग नहीं है। संविधान की प्रस्तावना
के उस भाग में संशोधन नहीं हो सकता जो आधारभूत ढांचे से संबंधित है। संविधान के मूल ढांचे की धारणा का आशय है कि संविधान की कुछ व्यवस्थाएं अन्य व्यवस्थाओं की तुलना में अधिक महत्वपूर्ण हैं, ये संविधान के मूल ढांचे के अन्तर्गत आती हैं। इनकी घोषणा विभिन्न अवसरों पर की गयी है। संविधान की प्रस्तावना
केशवानन्द बनाम भारत संघ के मामले में न्यायाधीश सीकरी के अनुसार
(i) संविधान की सर्वोच्चता,
(ii) सरकार का प्रजातांत्रिक स्वरूप तथा गणतांत्रिक स्वरूप
(iii) संविधान का धर्मनिरपेध स्वरूप
(iv) विधायिका, कार्यपालिकातबन्यायपालिका के मध्यशक्तियों का विभाजन
और
(v) संविधान की संथात्मक प्रकृति।
न्यायाधीश शेलट एवं ग्रोवर के अनुसार दी गयी सूची में उपर्युक्त वर्णित 5 तत्वों के अलावा निम्न बातें सम्मिलित हैं:
(i) विभिन्न स्वतंत्रताओं तथा मूल अधिकारों द्वारा सुनिश्चित व्यक्ति की
गरिमा,
(ii) कल्याणकारी राज्य की स्थापना के लिए राज्य की नीति निर्देशक
(iii) देश की एकता तथा अखंडता।
न्यायाधीश हेगड़े तथा मुखर्जीके अनुसार :
(i) भारत की प्रभुत्व संपन्नता,
(ii) देश की प्रजातांतत्रिक व्यवस्था,
(iii) देश की एकता,
(iv) व्यक्तिगत स्वतंत्रता, तथा
(v) कल्याणकारी राज्य की स्थापना का निर्देशक तत्व।
इंदिरा गांधी बनाम राजनारायण मामले में दिये गये निर्णय के अनुसार:
(i) विधि का शासन,
(ii) न्यायालयों की न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति तथा
(iii) स्वक्ता एवं निष्मय चुनाव पर अधारित लेकतंत्रिक व्यवस्था।
मिनर्वा मिल बनाम भारत संघ के मामले में दिये गये निर्णय के अनुसार:
(i) संसद को संविधान संशोधन की सीमित शक्ति,
(i) मूल अधिकारों तथा राज्य के नीति निर्देशक तत्वों में सामंजस्य,
(ii) कुछ मामलों में मूल अधिकार तथा ।
(iv) न्यायालय द्वारा न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति।
बोम्मई मामले में उच्चतम न्यायालय ने मध्य प्रदेश, हिमाचल और राजस्थान में 3 भाजपा सरकारों की बर्खास्तगी को उचित ठहराया और कहा कि पंथ निरपेक्षतावाद को संविधान का बुनियादी तत्व माना जाना चाहिए। उल्लेखनीय है कि भाजपा सरकार वाले इन तीनों राज्यों में पंथ निरपेक्षता को भारी आघात पहुंचा था।
इन्हें भी पढ़ें –
संविधान की प्रस्तावना | Preamble of the Constitution [Part-1]
संविधान का निर्माण | Making of Constitution
भारत के संविधान का विकास | Evolution of the Constitution of India