संवैधानिक इतिहास Constitutional History भारतीय संविधान का अपना एक इतिहास है| जो अन्य देशों के संविधान से अलग और अनोखा है इसमें अलग-अलग देशों से संविधान का कुछ भाग लिया गया है और उसको साथ जोड़कर विश्व का सबसे बड़ा लिखित संविधान बनाया गया है| अब तक का विश्व का सबसे बड़ा लिखित संविधान भारत का ही है|
संवैधानिक इतिहास | Constitutional History [Part-3]
(5) भारतीय परिषद अधिनियम 1909:
1882 का अधिनियम राष्ट्रवादियों को संतुष्ट नहीं कर सका था, साथ ही राष्ट्रीय आंदोलन पर उग्रवादी नेताओं का प्रभाव बढ़ता जा रहा था। सेक्रेटरी ऑफ स्टेट लॉर्ड मार्ले तथा भारत में वायसराय लॉर्ड मिंटो दोनों ही सहमत थे कि कुछ सुधारों की आवश्यकता है। सर अरुण्डेल कमेटी की रिपोर्ट के आधार पर फरवरी 1909 ई. में नया अधिनियम पारित किया गया जिसे भारतीय परिषद् अधिनियम 1909 और ‘मार्ले-मिंटो सुधार’ के नाम से जाना गया। इस अधिनियम के प्रमुखा प्रावधान निम्न थे:
(i) इस अधिनियम के द्वारा केन्द्रीय एवं प्रांतीय विधान परिषदों में निर्वाचित सदस्यों की संख्या में वृद्धि की गयी। प्रांतीय विधान परिषदों में गैर-सरकारी बहुमत स्थापित किया गया। संवैधानिक इतिहास
(ii) सभी निर्वाचित सदस्य अप्रत्यक्ष रूप से चुने जाते थे। स्थानीय निकायों से निर्वाचन परिषद का गठन होता था। ये प्रांतीय विधान परिषदों के सदस्यों का चुनाव करती थी। प्रांतीय विधान परिषद के सदस्य केन्द्रीय व्यवस्थापिका के सदस्यों का चुनाव करते थे।
(ii) पहली बार पृथक निर्वाचन व्यवस्था का प्रारंभ किया गया। मुसलमानों को प्रतिनिधित्व में विशेष रियायत दी गयो। उन्हें केन्द्रीय एवं प्रांतीय विधान परिषदों में जनसंख्या के अनुपात से अधिक प्रतिनिधि भेजने का अधिकार दिया गया। संवैधानिक इतिहास
(iv) गवर्नर जनरल की कार्यकारिणी में एक भारतीय सदस्य को नियुका करने की व्यवस्था की गयी। प्रथम भारतीय सदस्य के रूप में सत्येन्द्र सिन्हा की नियुक्ति हुई।
(v) विधायिका के कार्यक्षेत्र में विस्तार किया गया। सदस्यों को बजट प्रस्ताव करने और जनहित के विषयों पर प्रश्न पूछने का अधिकार दिया गया। जिन विषयों को विधायिका के क्षेत्र से बाहर रखा गया था, वे थे सशस्त्र सेना, विदेश संबंध और देशी रियासते।
इस अधिनियम की सबसे बड़ी त्रुटि यह थी कि पृथक अथवा साम्प्रदायिक आधार पर निर्वाचन की पद्धति लागू की गयी। इसके अलावा जो चुनाव पद्धति अपनायी गयी, वह इतनी अस्पष्ट थी कि जन प्रतिनिधित्व प्रणाली एक प्रकार की बहुत-सी छननियों में से छानने की प्रक्रिया बन गयी। संसदीय प्रणाली तो दे दी गयी, परंतु उत्तरदायित्व नहीं दिया गया। संवैधानिक इतिहास
(6) भारतीय परिषद अधिनियम 1919:
20 अगस्त, 1917 को तत्कालीन सेक्रेटरी ऑफ स्टेट फॉर इंडिया, मॉटेग्यु ने हाउस ऑफ कॉमंस में एक ऐतिहासिक वक्तव्य दिया, जिसमें ब्रिटेन के इरादे का बयान किया गया: “शासन की सभी शाखाओं में भारतीयों को शामिल करना और स्वायत्तशासी संस्थाओं का क्रमिक विकास, जिससे ब्रिटिश भारत के अभिन्न अंग के रूप में उत्तरदायी सरकार की उत्तरोत्तर उपलब्धि हो सके।” इसी घोषणा को कार्यान्वित करने के लिए ‘मोंटफोर्ड रिपोर्ट-1918’ प्रकाशित की गयी, जो 1919 के अधिनियम का आधार बना। इस एक्ट द्वारा तत्कालीन भारतीय संवैधानिक प्रणाली में महत्वपूर्ण परिवर्तन किये गये:
(i) केन्द्रीय विधान परिषद का स्थान राज्य परिषद (उच्च सदन) तथा विधान सभा (निम्न सदन) वाले द्विसदनीय विधान मंडल ने ले लिया। हालांकि, सदस्यों को नामजद करने की कुछ शक्ति बनाये रखी गयी, फिर भी प्रत्येक सदन में निर्वाचित सदस्य का बहुमत होना सुनिश्चित किया गया। संवैधानिक इतिहास
(ii) सदस्यों का चुनाव सीमांकित निर्वाचन क्षेत्रों द्वारा प्रत्यक्ष रूप से किया जाना था। मताधिकार का विस्तार किया गया। निर्वाचक मंडल के लिए अर्हताएं साम्प्रदायिक समूह, निवास और संपति पर आधारित थीं। संवैधानिक इतिहास
(iii) आठ प्रमुख प्रांतों में जिन्हें गवर्नर का प्रांत कहा जाता था, “छैद्ध शासन” की एक नयी पद्धति शुरू की गयी। प्रांतीय सूची के विषयों को दो भागों में बंटा गया-सुरक्षित विषय और हस्तांतरित विषय। सुरक्षित सूची के विषय गवर्नर के अधिकार क्षेत्र में थे और वह इन विभागों को अपने कार्यकारिणी की सहायता से देखता था। हस्तांतरित विषय भारतीय मंत्रियों के अधिकार में थे, जिनकी नियुक्ति भारतीय सदस्यों में से होती थी।
(iv) अधिनियम के प्रारंभ के दस वर्ष बाद द्वैत शासन प्रणाली तथा संवैधानिक सुधारों के व्यावहारिक रूप की जांच के लिए और उत्तरदायी सरकार की प्रगति से संबंधित मामलों पर सिफारिश करने के लिए ब्रिटिश संसद द्वारा एक आयोग ने गठन की व्यवस्था की गयी। इसी प्रावधान के अनुसार 1927 में साईमन आयोग का गठन किया गया।
1919 के अधिनियम में अनेक खामियां थीं। इसने जिम्मेदार सरकार की मांग को पूरा नहीं किया। इसके अलावा प्रांतीय विधान मंडल गवर्नर जनरल की स्वीकृति के बगैर अनेक विषयों में विधेयक पर बहस नहीं कर सकते थे। सिद्धांत रूप में केन्द्रीय विधान मंडल सम्पूर्ण क्षेत्र में कानून बनाने के लिए सर्वोच्च तथा सक्षम बना रहा।
केन्द्र तथा प्रांतों के बीच शक्तियों के बंटवारे के बावजूद ब्रिटिश भारत का संविधान एकात्मक राज्य का संविधान ही बन रहा। प्रांतों में कैद्ध शासन पूरी तरह विफल रहा। गवर्नर का पूर्ण वर्चस्व कायम रहा। वित्तीय शक्ति के अभाव में मंत्री अपनी नीतियों को प्रभावी रूप से कार्यान्वित नहीं कर सकते थे। इसके अलावा मंत्री विधान मंडल के प्रति सामूहिक रूप से जिम्मेदार नहीं थे। वस्तुतः मंत्रियों को दो मालिकों को खुश रखना पड़ता था- एक तो विधान परिषद को और दूसरा गवर्नर जनरल को। संवैधानिक इतिहास
(7) साइमन कमीशन 1927:
1919 के अधिनियम की धारा 84 के अनुसार सर जॉन साइमन की अध्यक्षता में एक आयोग का गठन किया गया। इस आयोग में एक भी भारतीय सदस्य नहीं था अत: भारतीयों द्वारा इसका विरोध किया गया। आयोग की रिपोर्ट जून 1930 में प्रकाशित हुई। साइमन कमीशन द्वारा डोमिनियन दर्जे की मांग को ठुकरा दिये जाने के बाद कांग्रेस ने 1929 के लाहौर अधिवेशन में पूर्ण स्वराज्य’ का प्रस्ताव पारित किया गया। संवैधानिक इतिहास
(8) नेहरू रिपोर्ट :
कांग्रेस पार्टी ने सेक्रेटरी ऑफ स्टेट, लॉर्ड वर्कनहेड की इस चुनैती को स्वीकार किया कि एक ऐसे संविधान की रचना की जाये, जो भारत के हर दल को स्वीकार हो। इसके लिए 28 फरवरी, 1928 ई. को दिल्ली में एक सर्वदलीय सम्मेलन बुलाया गया। संविधान का प्रारूप बनाने के लिए पंडित मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षत में नौ सदस्यों की एक समिति बनायी गयी। इस समिति द्वारा प्रस्तुत प्रारूप को ही नेहरू रिपोर्ट के नाम से जाना जाता है।
नेहरू रिपोर्ट लखनक के सर्वदलीय सम्मेलन में स्वीकार की गयी, लेकिन दिसम्बर 1928 ई. में कलकत्ता के सर्वदलीय सम्मेलन में इस पर गंभीर आपत्ति उठायी गयी। नेहरू रिपार्ट के साम्प्रदायिक समझौता में सभी समुदायों के संयुक्त निर्वाचक समूह का प्रस्ताव था। इस प्रस्ताव पर सबसे बड़ी आपति मुहम्मद अली जिन्ना ने की। संवैधानिक इतिहास
(9) गोलमेज सम्मेलन 1930-1932 :
साइमन आयोग की रिपोर्ट के प्रकाशित होने के पहले ही लॉर्ड इर्विन ने घोषणा की थी कि रिपोर्ट को गोलमेज सम्मेलन में विचार के लिए रखा जायेगा। पहला सम्मेलन 12 नवम्बर, 1930 को हुआ। यह सम्मेलन किसी निश्चित सहमति पर नहीं पहुंच सका। पहले सम्मेलन में कांग्रेस ने भाग नहीं लिया था। फरवरी 1931 के ‘गांधी-इर्विन समझौते के फलस्वरूप दूसरे गोलमेज सम्मेलन में कांग्रेस की तरफ से गांधीजी ने सम्मेलन में भाग लिया।
श्रीमती सरोजिनी नायडू और पंडित मदन मोहन मालवीय ने ब्रिटिश सरकार के मनोनीत सदस्य के रूप में भाग लिया। दूसरे समुदायों के प्रतिनिधियों को भी आमंत्रित किया गया। इस सम्मेलन के बाद ही ‘साम्प्रदायिक अधिनिर्णय’ (Ceemammal Award) और पूना समझौता का आविर्भाव हुआ, जिनके द्वारा धार्मिक समूहों और हिंदुओं के विभिन्न वर्ण समूहों को विशेष प्रतिनिधित्व दिया गया। संवैधानिक इतिहास
कांग्रेस और अन्य राष्ट्रीय समूहों ने इन प्रावधानों का जमकर विरोध किया। तीसरा और अंतिम गोलमेज सम्मेलन नवम्बर 1932 ई. में हुआ। एक श्वेत पत्र जारी किया गया, जिस पर ब्रिटेन की संसद की संयुक्त प्रवर समिति ने विचार किया। इसके सुझावों के आधार पर भारत सरकार अधिनियम 1935 बनाया गया। संवैधानिक इतिहास
(10) भारत सरकार अधिनियम 1935 :
1935 के भारत सरकार अधिनियम में 321 अनुच्छेद तथा 10 अनुसूचियां थीं। इस अधिनियम के प्रमुख प्रावधान निम्न थे:
(i) इस अधिनियम द्वारा अखिल भारतीय संघ का प्रावधान किया गया,
जिसमें ब्रिटिश प्रांतों का शामिल होना अनिवार्य था, किंतु देशी रियासतों का शामिल होना नरेशों की इच्छा पर निर्भर था।
(ii) संघ तथा केन्द्र के बीच शक्तियों का विभाजन किया गया। विभिन्न विषयों को तीन सूचियां बनायी गयी- संघीय सूची, प्रांतीय सूची तथा समवर्ती सूची।
(iii) 1919 के अधिनियम द्वारा जो द्वैध शासन प्रांतों में लागू किया गया था, उसे केन्द्र में लागू किया गया। केन्द्रीय सरकार के विषयों को दो भागों में विभाजित किया गया- संरक्षित विषय और हस्तांतरित विषय। संरक्षित विषय गवर्नर जनरल के अधिकार क्षेत्र में था, जबकि हस्तांतरित विषयों का शासन मंत्रिपरिषद को सौंपा गया। संवैधानिक इतिहास
(iv) केन्द्र में द्विसदनात्मक विधायिका की स्थापना की गयी- राज्य परिषद (उच्च सदन) तथा केन्द्रीय विधान सभा (निम्न सदन)।
(v) प्रांतों में कैद्ध शासन को समाप्त कर प्रांतीय स्वायत्तता के सिद्धान्त को स्वीकार किया गया। संवैधानिक इतिहास
(vi) प्रांतीय विधायिका को प्रांतीय सूची तथा समवर्ती सूची पर कानून बनाने का अधिकार दिया गया। संवैधानिक इतिहास
(vii) प्रांतीय विधान मंडल को अनेक शक्तियां दी गयी। मंत्रिपरिषद को विधानमंडल के प्रति जिम्मेदार बना दिया गया और वह एक अविश्वास प्रस्ताव पारित कर उसे पदच्युत कर सकता था। विधान मंडल प्रश्नों तथा अनुपूरक प्रश्नों के माध्यम से प्रशासन पर कुछ नियंत्रण रख सकता था। संवैधानिक इतिहास
(viii) इस अधिनियम के अधीन बर्मा को भारत से अलग कर दिया गया और उड़ीसा तथा सिंध नाम से दो नये प्रांत बना दिये गये।
(ix) इस अधिनियम द्वारा एक संघीय बैंक और एक संघीय न्यायालय की स्थापना का भी प्रावधान किया गया। संवैधानिक इतिहास
(17) भारतीय स्वतंत्रता अधिनिमय 1947 :
माउन्टबेटेन योजना के आधार पर ब्रिटिश संसद द्वारा पारित भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947 के प्रमुख प्रावधान निम्न थे:
(i) भारत तथा पाकिस्तान नामक दो डोमिनियनों की स्थापना के लिए 15 अगस्त, 1947 की तारीख निश्चित की गयी।
(ii) इसमें भारत का क्षेत्रीय विभाजन भारत तथा पाकिस्तान के रूप में करने तथा बंगाल एवं पंजाब में दो-दो प्रांत बनाने का प्रस्ताव किया गया। पाकिस्तान को मिलने वाले क्षेत्रों को छोड़कर ब्रिटिश भारत में सम्मिलित सभी प्रांत भारत में सम्मिलित माने गये।
(iii) पूर्वी बंगाल, पश्चिमी बंगाल और असम के सिलहट जिले को पाकिस्तान में सम्मिलित किया जाना था।
(iv) भारत में महामहिम की सरकार (His Majesty’s Government) का उत्तरदायित्व तथा भारतीय रियासतों पर महामहिम का अधिराजत्व 15 अगस्त, 1947 को समाप्त हो जायेगा।
(v) भारतीय रियासतें इन दोनों में से किसी में शामिल हो सकती थी। संवैधानिक इतिहास
(vi) प्रत्येक डोमिनियन के लिए पृथक गवर्नर जरनल होगा जिसे महामहिम द्वारा नियुक्त किया जायेगा। गवर्नर जनरल डोमिनियन की सरकार के प्रयोजनों के लिए महामहिम का प्रतिनिधित्व करेगा।
(vii) प्रत्येक डोमिनियन के लिए पृथक विधानमंडल होगा, जिसे विधियाँ बनाने का पूरा प्राधिकार होगा तथा ब्रिटिश संसद उसमें कोई हस्तक्षेप नहीं कर सकेगी।
(viii) डोमिनियम की सरकार के लिए अस्थायी उपबंध के द्वारा दोनों संविधान सभाओं की संसद का दर्जा तथा डोमिनियन विधानमंडल की पूर्ण शक्तियां प्रदान की गयी।
(ix) इसमें गवर्नर जनरल को एकर के प्रभावी प्रवर्तन के लिए ऐसी व्यवस्था करने हेतु, जो उसे आवश्यक तथा समीचीन प्रतीत हो, अस्थायी आदेश जारी करने का प्राधिकार दिया गया।
(x) इसमें सेक्रेटरी ऑफ द स्टेट की सेवाओं तथा भारतीय सशस्त्र बल, ब्रिटिश स्थल सेना, नौसेना और वायु सेना पर महामहिम की सरकार का अधिकार क्षेत्र अथवा प्राधिकार जारी रहने की शर्ते निर्दिष्ट की गयी थी।
इस प्रकार भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947 के अनुसार 14-15 अगस्त, 1947 को भारत तथा पाकिस्तान नामक दो स्वतंत्र राष्ट्रों का गठन कर दिया गया। इस प्रकार भारतीय संविधान की बहुत-सी संस्थाओं का विकास संवैधानिक विकास के लम्बे समय में हुआ, जिसकी चर्चा ऊपर की गयी है। इसका सबसे महत्वपूर्ण उदाहरण है संघीय व्यवस्था। यह कांग्रेस और मुस्लिम लौग द्वारा 1916 ई. के लखनऊ समझौते में स्वीकार की गयी थी।
साइमन कमीशन ने भी संघीय व्यवस्था पर बल दिया और 1935 ई. के अधिनिमय ने संघीय व्यवस्था की स्थापना की, जिसमें प्रांतों के अधिकार ब्रिटेन के क्राउन द्वारा प्राप्त हुए थे। जब भारत स्वतंत्र हुआ तब तक राष्ट्रीय आन्दोलन के नेता संघीय व्यवस्था के लिए वचनबद्ध हो चुके थे। संसदीय व्यवस्था, जो कार्यपालिका और विधायिका के संबंधों को परिभाषित करती है, भारत में अपरिचित नहीं थी। इस तरह भारतीय संविधान, संविधान निर्माताओं की बुद्धिमानी और सूक्ष्म दृष्टि और कालक्रम में विकसित संस्थाओं और कार्यविधियों का एक अपूर्व सम्मिश्रण है। संवैधानिक इतिहास
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