संवैधानिक इतिहास Constitutional History भारतीय संविधान का अपना एक इतिहास है| जो अन्य देशों के संविधान से अलग और अनोखा है इसमें अलग-अलग देशों से संविधान का कुछ भाग लिया गया है और उसको साथ जोड़कर विश्व का सबसे बड़ा लिखित संविधान बनाया गया है| अब तक का विश्व का सबसे बड़ा लिखित संविधान भारत का ही है|
संवैधानिक इतिहास | Constitutional History [Part-2]
(7) 1833 का राजपत्र :
1813 के अधिनियम के बाद भारत में कम्पनी के साम्राज्य में काफी वृद्धि हुई तथा महाराष्ट्र, मध्य भारत, पंजाय, सिन्ध, ग्वालियर, इंदौर आदि पर अंग्रेजों का प्रभुत्व स्थापित हो गया। इसी प्रभुत्व को स्थायित्व प्रदान करने के लिए 1833 का चार्टर अधिनियम पारित किया गया। इसके निम्न मुख्य प्रावधान थे। संवैधानिक इतिहास
(i) कम्पनी के चाय एवं चीन के साथ व्यापार के एकाधिकार को समाप्त कर उसे पूर्णत: प्रशासनिक और राजनीतिक संस्था बना दिया गया।
(ii) बंगाल के गवर्नर जनरल को सम्पूर्ण भारत का गवर्नर जरनल घोषित किया गया। सम्पूर्ण भारत का प्रथम गवर्नर जनरल लॉर्ड बैंटिक बना।
(iii) भारत के प्रदेशों पर कम्पनी के सैनिक तथा असैनिक शासन के निरीक्षण और नियंत्रण का अधिकार भारत के गवर्नर जनरल को दिया गया। भारत के गवर्नर जनरल की परिषद द्वारा पारित कानूनों को अधिनियम की संज्ञा दी गयी।
(iv) विधि के संहिताकरण के लिए आयोग के गठन का प्रावधान किया भारत में दास-प्रथा को गैर-कानूनी घोषित किया गया। फलस्वरूप 1843 में भारत में दास-प्रथा की समाप्ति की घोषणा हुई।
(v) इस अधिनियम द्वारा यह स्पष्ट कर दिया गया कि कम्पनी के प्रदेशों में रहने वाले किसी भी भारतीय को केवल धर्म, वंश, रंग या जन्मस्थान इत्यादि के आधार पर कम्पनी के किसी पद से जिसके वह योग्य हो, बाँचत नहीं किया जायेगा।
(vi) सपरिषद गवर्नर जनरल को ही सम्पूर्ण भारत के लिए कानून बनाने का अधिकार प्रदान किया गया और मद्रास-बम्बई के परिषदों के कानून बनाने का अधिकार समाप्त कर दिये गये।
(vii) इस अधिनियम द्वारा भारत में केन्द्रीकरण का प्रारंभ किया गया, जिसका सबसे प्रवल प्रमाण विधियों को संहिताबद्ध करने के लिए एक आयोग का गठन था। इस आयोग का प्रथम अध्यक्ष लॉर्ड मैकाले को नियुक्त किया गया। संवैधानिक इतिहास
(8) 1853 का राजपत्र :
1853 का राजपत्र भारतीय शासन (ब्रिटिश कालीन) के इतिहास में अंतिम चार्टर एक्ट था। यह अधिनियम मुख्यतः भारतीयों की ओर से कम्पनी के शासन की समाप्ति की मांग तथा तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड डलहौजी की रिपोर्ट पर आधारित था।
इसकी प्रमुख विशेषताएं निम्न थी:
(i) ब्रिटिश संसद को किसी भी समय कम्पनी के भारतीय शासन को
समाप्त करने का अधिकार प्रदान किया गया।
(ii) कार्यकारिणी परिषद के कानून सदस्य को परिषद का पूर्ण सदस्य का दर्जा प्रदान किया गया।
(iii) बाल के लिए पृथक गवर्नर की नियुक्ति की व्यवस्था की गयी।
(iv) गवर्नर जनरल को अपनी परिषद के उपाध्यक्ष की नियुक्ति का अधिकार दिया गया।
(v) विधायी कार्यों को प्रशासनिक कार्यों से पृथक करने की व्यवस्था की गयी।
(vi) निदेशक मंडल में सदस्यों की संख्या 24 से घटाकर 18 कर दी गयी।
(vii) कम्पनी के कर्मचारियों की नियुक्ति के लिए प्रतियोगी परीक्षा की व्यवस्था की गयी।
(viii) भारतीय विधि आयोग की रिपोर्ट पर विचार करने के लिए इंग्लैंड में विधि आयोग के गठन का प्रावधान किया गया।
क्राउन के शासन काल में संवैधानिक विकास
(1) 1858 का अधिनियम :
1853 की चार्टर में कम्पनी को शासन के लिए चूंकि किसी निश्चित अवधि के लिए प्राधिकृत नहीं किया गया था, इसलिए किसी भी समय सत्ता का हस्तांतरण ब्रिटिश क्राउन को संसद के द्वारा हस्तांतरित किया जा सकता था। 1857 के गदर ने शासन की असंतोषजनक नीतियां उजागर कर दी थी, जिससे संसद को कम्पनी को पदच्युत करने का बहाना मिल गया। साम्राज्य की सुरक्षा के लिए ब्रिटिश संसद ने कई अधिनियम पारित किये जो भारतीय प्रशासन का आधार बने। संवैधानिक इतिहास
1858 के अधिनियम के प्रमुख प्रावधान निम्न थे:
(i) भारत में कम्पनी के शासन को समाप्त कर शासन का उत्तरदायित्व ब्रिटिश संसद को सौंप दिया गया।
(ii) अब भारत का शासन ब्रिटिश साम्राज्ञी की ओर से राज्य सचिव को चलाना था, जिसकी सहायता के लिए 15 सदस्यीय भारत परिषद का गठन किया गया। अब भारत के शासन से संबंधित सभी कानूनों एवं कार्यवाहियों पर भारत सचिव की स्वीकृति अनिवार्य कर दीगयी।
(iii) भारत के गवर्नर जनरल का नाम ‘वायसराय’ (क्राउन का प्रतिनिधि) कर दिया गया तथा उसे भारत सचिव की आज्ञा के अनुसार कार्य करने के लिए बाध्य किया गया। संवैधानिक इतिहास
(iv) भारत मंत्री को वायसराय से गुप्त पत्र व्यवहार तथा ब्रिटिश संसद में प्रतिवर्ष भारतीय बजट पेश करने का अधिकार दिया गया। संवैधानिक इतिहास
(v) कम्पनी की सेवा को ब्रिटिश शासन के अधीन कर दिया गया।
(vi) इस प्रकार भारत का प्रथम वायसराय लॉर्ड कैनिंग बना।
नवम्बर, 1858 को ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया ने भारत के संबंध में एक महत्वपूर्ण नीतिगत घोषणा की। इस घोषणा की महत्वपूर्ण बातें निम्न थीं:
(i) भारतीय प्रजा को साम्राज्य के अन्य भागों में रहने वाली ब्रिटिश प्रजा के समान माना जायेगा।
(ii) भारतीय लोगों के साथ लोक सेवाओं में अपनी शिक्षा, योग्यता तथा विश्वसनीयता के आधार पर स्वतंत्र एवं निष्पक्ष भर्ती में भेदभाव नहीं किया जायेगा।
(iii) भारत के लोगों के भौतिक एवं नैतिक उन्नति के प्रयास किये जायेंगे। संवैधानिक इतिहास
(2) भारतीय परिषद अधिनियम 1861 :
1861 का भारतीय परिषद अधिनियम भारत के संवैधानिक इतिहास में एक महत्वपूर्ण और युगांतकारी घटना है। यह दो मुख्य कारणों से महत्त्वपूर्ण है। एक तो यह कि इसने गवर्नर जनरल को अपनी विस्तारित परिषद में भारतीय जनता के प्रतिनिधियों को नामजद करके उन्हें विधायी कार्य से संबद्ध करने का अधिकार दिया। दूसरा यह कि इसने गवर्नर जनरल की परिषद की विधायी शक्तियों का विकेन्द्रीकरण कर दिया अर्थात बम्बई और मद्रास की सरकारों को भी विधायी शक्ति प्रदान की गयी। इस अधिनियम की अन्य महत्वपूर्ण बातें निम्न थीं:
(i) गवर्नर जनरल की विधान परिषद की संख्या में वृद्धि की गयो। अब इस परिषद में कम-से-कम 6 तथा अधिकतम 12 सदस्य हो सकते थे। उनमें कम-से-कम आधे सदस्यों का गैर-सरकारी होना जरूरी
(ii) गवर्नर जनरल को विधायी कार्यों हेतु नये प्रांत के निर्माण का तथा नव-निर्मित प्रांत में गवर्नर या लेफ्टिनेंट गवर्नर को नियुक्त करने का अधिकार दिया गया।
(iii) गवर्नर जनरल को अध्यादेश जारी करने का अधिकार दिया गया।
1865 के अधिनियम के द्वारा गवर्नर जनरल को प्रेसीडेन्सियों तथा प्रांतों की सीमाओं को उद्घोषणा द्वारा नियत करने तथा उनमें परिवर्तन करने का अधिकार दिया गया। इसी तरह 1869 के अधिनियम के द्वारा गवर्नर जनरल को विदेश में रहने वाले भारतीयों के संबंध में कानून बनाने का अधिकार दिया गया। 1873 के अधिनियम के द्वारा ईस्ट इंडिया कम्पनी को किसी भी समय भंग करने का प्रावधान किया गया। इसी के अनुसरण में 1 जनवरी, 1874 को ईस्ट इंडिया कम्पनी को भंग कर दिया गया। संवैधानिक इतिहास
(3) शाही उपाधि अधिनियम, 1876:
इस अधिनियम के अंतर्गत निम्न कार्य किये गयेः
(i) 28 अप्रैल, 1876 को एक घोषणा द्वारा महारानी विक्टोरिया को भारत की साम्राज्ञी’ घोषित किया गया।
(ii) औपचारिक रूप से भारत सरकार का ब्रिटिश सरकार को अन्तरण मान्य किया गया।
(4) भारतीय परिषद अधिनियम 1892 :
1861 के अंतर्गत गैर-सरकारी सदस्य या तो बड़े जमींदार होते थे या अवकाश प्राप्त अधिकारी या भारत के राज परिवारों के सदस्य। प्रतिनिधित्व की आम आकांक्षा की पुष्टि इससे नहीं हुई। इसी बीच भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा अधिक प्रतिनिधित्व की मांग की जाती रही। यूरोपीय व्यापारियों की ओर से भी भारत सरकार को इंग्लैंड में स्थित इंडिया ऑफिस से अधिक स्वतंत्रता की मांग की जाती रही। सर जॉर्ज चिजनी की अध्यक्षता में एक कमेटी बनी जिसके सुझावों का समावेश 1892 के अधिनियम में किया गया। इस अधिनियम की प्रमुख बातें निम्न थी:
(i) इस अधिनियम के द्वारा केन्द्रीय तथा प्रांतीय विधान परिषद् में ‘अतिरिक्त सदस्यों’ की संख्या बढ़ा दी गयी और उनके निर्वाचन का भी विशेष उल्लेख किया गया। यद्यपि इसके द्वारा सीमित चुनाव की ही व्यवस्था हुई, लेकिन भारत के मुख्य सामाजिक वर्गों का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित किया गया। संवैधानिक इतिहास
(ii) परिषद के अधिकारों में भी वृद्धि की गयी। वार्षिक आय या बजट का ब्योरा परिषद में प्रस्तुत करना आवश्यक हो गया। सदस्यों को कार्यपालिका के काम के बारे में प्रश्न पूछने का अधिकार दिया गया। संवैधानिक इतिहास
यद्यपि इस अधिनियम द्वारा विधायिका के सदस्य के सीमित निर्वाचन की शुरूआत हुई, फिर भी इस अधिनियम में अनेक खामियां थी जिनके कारण भारतीय राष्ट्रवादियों ने इस अधिनियम की बार-बार आलोचना की। यह माना गया कि स्थानीय निकायों का चुनाव मंडल बनाना एक प्रकार से इनके द्वारा मनोनीत करना ही है। विधान मंडलों की शक्तियां भी काफी सीमित थीं। सदस्य अनुपूरक प्रश्न नहीं पूछ सकते थे। किसी प्रश्न का उत्तर देने से इंकार किया जा सकता था। इसके अलावा वर्गों का प्रतिनिधित्व भी पक्षपातपूर्ण था। संवैधानिक इतिहास
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संविधान की प्रस्तावना | Preamble of the Constitution [Part-1]
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