मूल अधिकार एवं कर्त्तव्य भारतीय संविधान के भाग-3 के अनुच्छेद 12 से 35 तक मौलिक अधिकारों का विस्तृत वर्णन किया गया है। डॉ. अम्बेदकर ने मूल अधिकारों से संबंधित संविधान के भाग-3 को “सर्वाधिक आलोकित भाग” कहा था। इन अधिकारों का निर्धारण संविधान सभा द्वारा गठित एक समिति द्वारा किया गया, जिसके अध्यक्ष सरदार वल्लभ भाई पटेल थे।
मूल अधिकार एवं कर्त्तव्य | Fundamental Rights and Duties
अनुच्छेद 21 क-शिक्षा का अधिकार :
राज्य, छह वर्ष से चौदह वर्ष तक की आयु वाले सभी बालकों के लिए निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा देने का ऐसी रीति में,जो राज्य विधि द्वारा, अवधारित करे, उपबंध करेगा।
अनुच्छेद 22-कुछ दशाओं में गिरफ्तारी और निरोध से संरक्षणः
अनुच्छेद 22 के 7 खंडों में से खंड । तथा 2 में बंदी बनाये गये व्यक्ति को अधिकार तथा संरक्षण प्रदान किया गया है, जबकि खंड 3 से 7 का संबंध निवारक निरोध (Perentive Detention) से है। किसी भी बंदी बनाये गये व्यक्ति को निम्न तीन अधिकार प्रदान किये गये हैं
(i) बंदी बनाये गये व्यक्ति को तुरंत उसे बंदी बनाये जाने के कारणोंसे अवगत कराया जाये।
(ii) बंदी व्यक्ति को अपने अधिवक्ता से विचार-विमर्श तथा अपनी प्रतिरक्षा का अधिकार होगा।
(iii) बंदो व्यक्ति को 24 घंटे के अंदर निकटतम मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश किया जाना चाहिए। मजिस्ट्रेट की अनुमति के बिना किसी को भी 24 घंटे से अधिक समय के लिए बंदी नहीं रखा जा सकता।
उका अधिकार उन व्यक्तियों को प्राप्य नहीं हैं जो या तो शत्रु देश के नागरिक हैं या उन्हें निवारक निरोध के अंतर्गत बंदी बनाया गया है।
विधि का शासन
“विधि का शासन’ का प्रारंभ इंग्लैंड में हुआ था और उसे यह नाम लॉर्ड डायसी ने दिया है। विधि के समक्ष समता का आश्वासन | इसका एक पहलू है। इसका अर्थ है कि कोई भी व्यक्ति कानून से ऊपर नहीं है और चाहे उसका स्थान या दर्जा कुछ भी क्यों न हो, उसके ऊपर सामान्य न्यायालय की न्यायिक कार्यवाही हो सकती है। ‘विधि का शासन’ यह भी कहता है कि कानून व व्यवस्था बनाए रखने के लिए भी किसी भी व्यक्ति के साथ कटोर, असभ्य या भेदभावपूर्ण व्यवहार नहीं किया जाएगा। ‘विधि के शासन’ के तीन मौलिक अर्थ
1. स्वैच्छिक शक्ति का अभाव या विधि की सर्वोपरिता किसी व्यक्ति को कानून के उल्लंघन के लिए दंडित किया जा सकता है और किसी चीज के लिए नहीं।
2. विधि के समक्ष समता : कोई भी व्यक्ति कानून के ऊपर नहीं।
3. राज्य क्षेत्र का सर्वोच्च कानून संविधान है और विधायिका द्वारा पारित सभी कानून संविधान से संगत होने चाहिए।
निवारक निरोध :
निवारक निरोध का अर्थ है किसी प्रकार के अपराध होने के पूर्व ही किसी व्यक्ति को संदेह के आधार पर बिना किसी न्यायिक प्रक्रिया के नजरबंद या गिरफ्तार करना। इस प्रकार इन विधियों का उद्देश्य किसी अपराध को होने से रोकना है। भारतीय संविधान के अनुसार निवारक निरोध सामान्य काल तथा संकट काल दोनों ही परिस्थितियों में लागू होता है। भारत के अलावा अन्य किसी भी लोकतांत्रिक राज्य में इस प्रकार की व्यवस्था नहीं पायी जाती है। अनेक यूरोपीय और अमरीकी देशों में इस तरह का कानून केवल युद्ध काल में ही प्रभावी रहता है, जबकि भारत में यह युद्ध और शांति दोनों ही परिस्थितियों में लागू रहता है।
निवारक निरोध के संबंध में निम्न प्रावधान किये गये हैं
(i) निवारण निरोध के अंतर्गत बंदी बनाये गये व्यक्ति को वह अधिकार तथा संरक्षण नहीं प्रदान किया जायेगा, जो सामान्य विधि के अंतर्गत बंदी बनाये गये व्यक्ति को प्राप्त है। मूल अधिकार एवं कर्त्तव्य
(ii) बंदी बनाये गये व्यक्ति को तीन माह से अधिक अवधि के लिए तब तक निरोध में नहीं रखा जा सकता,जब तक सलाहकार परिषद तीन माह के पूर्व यह प्रतिवेदन न दे दे कि निरोध के लिए पर्याप्त कारण हैं। सलाहकार परिषद का गठन ऐसे व्यक्तियों से होगा, जो या तो उच्च न्यायालय के न्यायाधीश हों या उच्च न्यायालय के न्यायाधीश होने की योग्यता रखते हों।
(iii) बंदी व्यक्ति को न्यायालय में आवेदन का अवसर दिया जायेगा।
(iv) बंदी व्यक्ति को अपने बंदी बनाये जाने के कारणों को जानने का हक होगा।
(v) संसद को निवारक निरोध संबंधी कानून बनाने का अधिकार होगा,
जिसमें यह निर्धारित किया गया हो कि किसी व्यक्ति को किन परिस्थितियों में किस वर्ग के मामलों में, अधिक-से-अधिक कितनी अवधि के लिए निरुद्ध किया जा सकता है।
क्या उपाधियां अनुच्छेद 18 का उल्लंघन हैं?
‘भारतरत्न’, पद्मविभूषण’, ‘पद्मभूषण’, ‘पद्मश्री’ इत्यादि उपाधियों को प्रदान किया जाना, अनुच्छेद 18 का उल्लंघन नहीं है। ये सम्मान क्रियाकलापों के विविध क्षेत्रों में नागरिकों द्वारा किए गए अच्छे कार्यों की राज्य द्वारा मान्यता मात्र के प्रतीक हैं। ये सम्मान शैक्षिक विशेषोपलब्धि की श्रेणी में समीचीन बैठते हैं। परंतु, इन्हें उपाधि के रूप में या उपसर्ग या प्रत्यय के रूप में व्यवहार में नहीं लाया जा सकता। संविधान का अनुच्छेद 51(क) प्रत्येक नागरिक के लिए मौलिक कर्तव्यों का निर्धारण करता है। यह अत्यावश्यक है कि इन कर्तव्यों के निर्वाह में उत्कृष्टता की मान्यता के लिए सम्मानों व अलंकरणों की ऐसी एक व्यवस्था हो। अतः ये सम्मान अनु. 18 के प्रावधानों का उल्लंघन नहीं हैं। मूल अधिकार एवं कर्त्तव्य
संसद ने अब तक निम्न निवारक निरोध अधिनियम बनाये हैं
1. निवारक निरोध अधिनियम, 1950 (1969 से समाप्त हो गया)
2. आन्तरिक सुरक्षा व्यवस्था अधिनियम (MISA), 1971 (1979 में समाप्त हो गया)
3. राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम, 1983
4. विदेशी मुद्रा संरक्षण व तस्करी निवारण अधिनियम (COFEROSA), 1974
5. आतंकवाद एवं विध्वंसक गतिविधि निरोधक अधिनियम (TADA),
1985 (1995 में समाप्त)
6. आतंकवाद निवारक अधिनियम (PreventionofTemorism Act POTA), 2002
शोषण के विरुद्ध अधिकारः
संविधान के अनुच्छेद 23 और 24 के द्वारा प्रत्येक व्यक्ति को शोषण के विरुद्ध अधिकार प्रदान किया गया है। इसके द्वारा मानवीय गरिमा एवं प्रतिष्ठा को सुनिश्चित करने तथा दुराचारी व्यक्तियों द्वारा दुर्बल व्यक्तियों के शोषण को रोकने का प्रयास किया गया है। मूल अधिकार एवं कर्त्तव्य
अनुच्छेद 23 – मानव के दुव्यापार और बलात् श्रम का प्रतिषेधः
इसके द्वारा मानव व्यापार तथा किसी भी व्यकिा से जबर्दस्ती काम लेन गैर-कानूनी घोषित किया गया है। इस अधिकार का अपवाद है कि राज्य व्यक्तियों पर सार्वजनिक प्रयोजनों के लिए अनिवार्य सेवा अधिरोपित कर सकती है, और राज्य ऐसी सेवा अधिरोपित करते समय नागरिकों के बीच धर्म, मूलवंश, जाति, वर्ग या इनमें से किसी के आधार पर भेदभाव नहीं करेगा।
अनुच्छेद 24- कारखाने आदि में बालकों के नियोजन का प्रतिषेध :
इसके अनुसार 14 वर्ष से कम आयु के किस बालक को किसी कारखाने या खान में काम करने के लिए नियोजित नहीं किया जायशा या किसी अन्य संकटमय नियोजन में नहीं लगाया जायेगा।
धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार :
संविधान भारत को एक धर्मनिरपेक्ष राज्य घोषित करता है, जिसका तात्पर्य है कि भारत में संघ सरकार या राज्य सरकार का कोई धर्म नहीं है तथा भारत में सभी व्यक्तियों को किसी भी धर्म में आस्था रखने की स्वतंत्रता है। संविधान के अनुच्छेद 25 से 28 तक में धार्मिक स्वतंत्रता का प्रावधान किया गया है। मूल अधिकार एवं कर्त्तव्य
अनुच्छेद 25 – अन्तःकरण की स्वतंत्रता :
इसके द्वारा सभी व्यक्तियों को अन्तःकरण की स्वतंत्रता का तथा किसी भी धर्म को मानने और उसके प्रचार का अधिकार दिया गया है। मूल अधिकार एवं कर्त्तव्य
इस स्वतंत्रता तथा अधिकार पर लोक व्यवस्था, सदाचार एवं स्वास्थ्य के आधार पर प्रतिबंध लगाया जा सकता है। उच्चतम न्यायालय द्वारा निर्णय दिया गया है कि धर्म का प्रचार करने के अधिकार में बलात् धर्म परिवर्तन का कोई अधिकार शामिल नहीं है। कृपाण धारण करने को सिख धर्म का अंग माना गया है। हिंदु धर्मावलम्बी के अंतर्गत सिख, जैन तथा बौद्ध धर्म मानने वाले व्यक्तियों को शामिल किया गया है। मूल अधिकार एवं कर्त्तव्य
अनुच्छेद 26 – धार्मिक कार्यों के प्रबंध की स्वतंत्रता :
इसके अंतर्गत प्रत्येक धर्म के मानने वालों को निम्न स्वतंत्रताएं प्रदान की गयी हैं
(i) धार्मिक और धर्मार्थ (charitable) प्रयोजनों के लिए संस्थाओं की स्थापना और पोषण का,
(ii) अपने धर्म विषयक कार्यों का प्रबंध करने का,
(iii) चल और अचल संपत्ति के अर्जन और स्वामित्व का,
(iv) उक्त संपत्ति का विधि के अनुसार संचालन करने का अधिकार।
उक्त अधिकारों पर राज्य द्वारा लोक व्यवस्था, सदाचार और स्वास्थ्य के आधार पर प्रतिबंध लगाया जा सकता है।
अनुच्छेद 27- धार्मिक व्यय पर कर से मुक्ति :
किसी भी व्यक्ति को किसी विशिष्ट धर्म की अभिवृद्धि या पोषण में किये गये खर्च के लिए कोई कर अदा करने के लिए विवश नहीं किया जायेगा। मूल अधिकार एवं कर्त्तव्य
संविधान किसी विशेष धर्म पर किये जाने वाले व्यय को कर से मुक्त करता है, लेकिन यदि राज्य किसी धार्मिक संप्रदाय के लिए कोई कार्य करता है, तो ऐसे कार्य के लिए राज्य उस धार्मिक सम्प्रदाय के लोगों से शुल्क वसूल सकता है। कर और शुल्क में महत्वपूर्ण अंतर यह होता है कि राज्य बिना किसी प्रत्यक्ष सेवा के कर वसूलता है, जबकि शुल्क किसी सेवा के बदले में वसूला जाता है। मूल अधिकार एवं कर्त्तव्य
मूल अधिकार एवं कर्त्तव्य : मूल अधिकार एवं कर्त्तव्य : मूल अधिकार एवं कर्त्तव्य : मूल अधिकार एवं कर्त्तव्य
मूल अधिकार एवं कर्त्तव्य
मूल कर्तव्य Drishti IAS
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- मूल अधिकार एवं कर्त्तव्य | Fundamental Rights and Duties [Part-1]
- राज्य के नीति निर्देशक तत्व | Directive Principles of State Policy [Part-3]
- राज्य के नीति निर्देशक तत्त्व | Directive Principles of State Policy [Part-2]
- राज्य के नीति निर्देशक तत्त्व | Directive Principles of State Policy [Part-1]
- संवैधानिक इतिहास | Constitutional History [Part-3]
- संवैधानिक इतिहास | Constitutional History [Part-2]
- संवैधानिक इतिहास | Constitutional History[Part-1]