मूल अधिकार एवं कर्त्तव्य भारतीय संविधान के भाग-3 के अनुच्छेद 12 से 35 तक मौलिक अधिकारों का विस्तृत वर्णन किया गया है। डॉ. अम्बेदकर ने मूल अधिकारों से संबंधित संविधान के भाग-3 को “सर्वाधिक आलोकित भाग” कहा था। इन अधिकारों का निर्धारण संविधान सभा द्वारा गठित एक समिति द्वारा किया गया, जिसके अध्यक्ष सरदार वल्लभ भाई पटेल थे।
मूल अधिकार एवं कर्त्तव्य | Fundamental Rights and
लोकतांत्रिक देशों में नागरिकों को कुछ अधिकार विशेष रूप से प्रदान किये जाते हैं जिन्हें मौलिक अधिकार कहा जाता है। मौलिक अधिकार वे अधिकार होते हैं जो किसी व्यक्ति के सर्वागीण विकास के लिए आवश्यक होते हैं। ये अधिकार कई प्रकार से मौलिक हैं। सर्वप्रथम, ये बुनियादी मानव अधिकार हैं। मनुष्य होने के नाते हमें इन अधिकारों के उपभोग का अधिकार है। द्वितीय ये अधिकार हमें संविधान द्वारा दिये गये हैं तथा तीसरे, इन मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन के लिए इनकी सुरक्षा का आश्वासन स्वयं संविधान द्वारा दिया गया है। मूल अधिकार एवं कर्त्तव्य
मौलिक अधिकारों का महत्व
मौलिक अधिकार लोकतंत्र के आधार स्तंभ हैं। इन अधिकारों के बिना सच्चे प्रजातंत्र की कल्पना नहीं की जा सकती। ये व्यक्ति के आर्थिक, सामाजिक एवं राजनैतिक विकास के लिए अनिवार्य हैं। ये व्यक्ति की गरिमा तथा प्रतिष्ठा की स्थापना करते हैं।
मौलिक अधिकारों के द्वारा ही व्यक्ति की राजनीतिक प्रक्रिया में सहभागिता सुनिश्चित होती है तथा किसी विशेष दल की तानाशाही पर अंकुश लगती है। इसके द्वारा ही व्यक्ति की आकांक्षाओं और राजनीतिक उद्देश्यों के मध्य सामंजस्य स्थापित होता है। वस्तुतः ये मानवीय स्वतंत्रता के मापदंड और संरक्षक दोनों ही हैं। मूल अधिकार एवं कर्त्तव्य
मौलिक अधिकारों का इतिहास
मौलिक अधिकारों के विकास का इतिहास 1215 ई. में ब्रिटेन के सम्राट जान द्वारा स्वीकृत किये गये “मैग्नाकार्टा ” से आरंभ होता है इंग्लैंड में ही 1688 की ‘शानदार क्रांति’ (Glorious revolution) के बाद नागरिकों को कई मौलिक अधिकार प्रदान किये गये।
फ्रांस में क्रांति के बाद 1789 के संविधान में मानवीय अधिकारों की घोषणा को शामिल करके व्यक्ति के जीवन के लिए कुछ आवश्यक अधिकारों को संवैधानिक मान्यता प्रदान करने की प्रथा प्रारंभ की गयी। संयुक्त राज्य अमरीका के संविधान में 1791 में दसवें संविधान संशोधन द्वारा ” अधिकार पत्र” (Bill of Rights) जोड़ा गया। मूल अधिकार एवं कर्त्तव्य
भारत में मूल अधिकारों की मांग के प्रेरणा स्रोत उपर्युक्त घोषणाएं और अधिकार पत्र ही रही हैं। भारत में सर्वप्रथम मौलिक अधिकारों की मांग 1895 में एक विधेयक के माध्यम से की गयी थी। तत्पश्चात् श्रीमती एनी बेसेंट द्वारा 1915 में प्रवर्तित भारतीय संविधान विधेयक या होमरूल में मूल अधिकारों की मांग की गयी। 1925 में ‘द कॉमनवेल्थ ऑफ इंडिया बिल’ में भी इन अधिकारों की मांग प्रस्तुत की गयी। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के 1927 के मद्रास अधिवेशन में भी मूल अधिकारों की मांग की गयी। मूल अधिकार एवं कर्त्तव्य
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा स्वीकृत नेहरू रिपोर्ट में भी मौलिक अधिकारों को स्थान दिया गया। 1930 के कांग्रेस के कराची अधिवेशन तथा दूसरे गोलमेल सम्मेलन में गांधीजी द्वारा यह मांग की गयी, लेकिन 1934 ई. में संयुक्त संसदीय समिति ने इस मांग को अस्वीकार कर दिया, अतः 1935 के भारत सरकार अधिनियम में मूल अधिकारों को शामिल नहीं किया गया। कैबिनेट मिशन के इस सुझाव पर कि मूल अधिकारों, अल्पसंख्यकों के अधिकारों की सिफारिश करने के लिए एक समिति का गठन किया जाना चाहिए, संविधान सभा ने वल्लभ भाई पटेल की अध्यक्षता में परामर्श समिति का गठन किया। मूल अधिकार एवं कर्त्तव्य
मौलिक अधिकारों से संबंधित उप समिति के सदस्य थे- जे. बी. कृपलानी, मीनू मसानी के.टी. शाह, अल्लादी कृष्णास्वामी अय्यर, के. एम. पणिकर तथा राजकुमारी अमृतकौर । यह उपसमिति परामर्श समिति की पांच उपसमितियों में से एक थी तथा इसके अध्यक्ष जे. बी. कृपलानी थे। परामर्श समिति तथा उपसमिति के परामश के आधार पर संविधान में मूल अधिकारों को शामिल किया गया। मूल अधिकार एवं कर्त्तव्य
राज्य की परिभाषा
अनुच्छेद 12 के अनुसार, ‘राज्य’ के अंतर्गत भारत की सरकार व संसद तथा प्रत्येक राज्य की सरकार व विधायिका और भारत के राज्यक्षेत्र में आने वाले या भारत सरकार के नियंत्रण में विद्यमान सभी स्थानीय अथवा अन्य प्राधिकरण इन सबका समावेश है। यद्यपि अनुच्छेद 12 में ‘न्यायपालिका’ का स्पष्ट उल्लेख नहीं है, तथापि इसे अन्य प्राधिकरण’ पद के अंतर्गत मान लिया जाना चाहिए, क्योंकि न्यायालयों की स्थापना संविधि द्वारा होती है, एवं वे विधि द्वारा प्रदान की गई शक्तियों का ही प्रयोग करते हैं।
मूल अधिकारों का वर्गीकरण
भारतीय संविधान द्वारा प्रारंभ में भारतीय नागरिकों को सात मौलिक अधिकार प्रदान किये गये थे, किन्तु 44वें संविधान संशोधन द्वारा 1978 में सम्पत्ति के मौलिक अधिकार को मौलिक अधिकारों की सूची से निकाल दिया गया। अब सम्पत्ति का अधिकार केवल एक कानूनी अधिकार है। इस प्रकार नागरिकों को निम्नलिखित छः मौलिक अधिकार प्राप्त हैं
1. समानता का अधिकार
2. स्वतंत्रता का अधिकार
3. शोषण के विरुद्ध अधिकार
4. धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार
5. संस्कृति तथा शिक्षा संबंधी अधिकार
6. संवैधानिक उपचारों का अधिकार
समानता का अधिकार
समानता का अभिप्राय है कि प्रत्येक व्यक्ति को सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक समानता सुलभ हो। न्यायिक निर्णयों के अनुसार समानता का अधिकार भारतीय संविधान का मूल दांचा है। संविधान के अनुच्छेद 14 से 18 के तहत व्यक्तियों को प्रदत समानता के अधिकार का विशद् वर्णन किया गया है। मूल अधिकार एवं कर्त्तव्य
मूल अधिकारों का उद्देश्य
1. एक ऐसी सरकार का गठन करना जिसका उद्देश्य व्यक्तियों के हितों में अभिवृद्धि करना हो।
2. सरकार की शक्तियों को सीमित करना, जिससे सरकार नागरिकों को स्वतंत्रताओं के विरुद्ध अपनी शकिा का दुरुपयोग न कर सके।
3. नागरिकों के व्यक्तित्व का विकास करना।
अनुच्छेद 14:”राज्य भारत के राज्य क्षेत्र में किसी व्यक्ति को विधि के समक्ष समता से या विधियों के समान संरक्षण से वंचित नहीं करेगा।”
हमारे संविधान प्रयोग में लाये गये दो पदों ‘विधि के समक्ष समानता’ और विधियों के समान संरक्षण में ‘विधि के शासन’ (Rule of law)
और ‘समान न्याय’ (Equality of Justice) की अवधारणाएं सन्निहित हैं। इसमें प्रथम पदावली को ब्रिटेन की सामान्य विधि से ग्रहण किया गया है, जिसका तात्पर्य है कि राज्य सभी व्यक्तियों के लिए एक समान कानून बनायेगा और उसे सभी व्यक्तियों पर एक समान रूप से लागू किया जायेगा। ‘विधियों का समान संरक्षण’ पदावली अमेरिका के संविधान से ग्रहण की गयी है, जिसका तात्पर्य है समान परिस्थितियों में प्रत्येक व्यक्ति को विधियों का समान संरक्षण प्राप्त होगा। मूल अधिकार एवं कर्त्तव्य
भारतीय संविधान में विधि के समक्ष समानता के निम्न अपवाद
(i) राष्ट्रपति या राज्यपाल के विरुद्ध उनके कार्यकाल के समय किसी न्यायालय में आपराधिक कार्यवाही शुरू नहीं की जा सकती।
(ii) राष्ट्रपति या राज्यपाल को अपने कार्यकाल के दौरान किये गये किसी कार्य के लिए न्यायालय में उपस्थित होने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता।
(iii) राष्ट्रपति या राज्यपाल के विरुद्ध उनके कार्यकाल के दौरान अनुतोष के लिए दीवानी कार्यवाही नहीं की जा सकती।
उपरोक्त उन्मुक्तियों से राष्ट्रपति के विरुद्ध महाभियोग की कार्यवाहियाँ तथा भारत सरकार के या राज्य सरकार के विरुद्ध वाद या अन्य समुचित कार्यवाहियां वर्जित नहीं होती। मूल अधिकार एवं कर्त्तव्य
यद्यपि विधियों के समान संरक्षण के द्वारा समान परिस्थिति में समान व्यवहार का आश्वासन दिया गया है, फिर भी विधायिका युक्तियुक्त वर्गीकरण के आधार पर समान परिस्थिति वाले व्यक्तियों में विभेद कर सकती है। न्यायिक निर्णयों के अनुसार आयु. लिंग भौगौलिक या क्षेत्रीय, अनुभव या वरिष्ठता, कर निर्धारण आदि के आधार पर व्यक्तियों के बीच भेद किया जा सकता है।
अनुच्छेद 15 (1) : राज्य किसी नागरिक के विरुद्ध केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्मस्थान या इनमें से किसी के आधार पर कोई विभेद नहीं करेगा।”
(2) कोई नागरिक केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्मस्थान या इनमें से किसी के आधार पर (क) दुकानों, सार्वजनिक भोजनालयों, होटलों और सार्वजनिक मनोरंजन के स्थानों में प्रवेश, या (ख) पूर्णत: या भागत: राज्य विधि से पोषित या साधारण जनता के प्रयोग के लिए समर्पित कुओं, तालाबों, स्नान घाटों, सड़कों और सार्वजनिक समागम के स्थानों के उपयोग के बारे में किसी भी नियोग्यता दायित्व, निबन्धन या शर्त के अधीन नहीं होगा। मूल अधिकार एवं कर्त्तव्य
(3) इस अनुच्छेद की कोई बात राज्य को स्त्रियों और बालकों के लिए कोई विशेष उपबंध करने से निवारित नहीं करेगी।
(4) इस अनुच्छेद की या अनुच्छेद 29 के खंड-2 की कोई बात राज्य को सामाजिक और शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े हुए नागरिकों के किन्हीं वर्गों की उन्नति के लिए या अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए कोई विशेष उपबंध करने से निवारित नहीं करेगी। मूल अधिकार एवं कर्त्तव्य
यह स्पष्ट है कि इस अनुच्छेद का विषय बहुत विस्तृत है। खंड-1 में केवल’ शब्द का प्रयोग महत्वपूर्ण है। इनमें से किसी एक या अधिक आधारों पर तथा अन्य आधार या आधारों पर आधारित विभेद इस अनुच्छेद के द्वारा प्रभावित नहीं होगा, और न ही विकास पर आधारित विभेद अवैध होगा। खंड-2 के प्रतिषेध राज्य एवं साधारण जनता दोनों की कार्यवाहियों पर लागू होते हैं। खंड 3 तथा 4 में वे आधार दिये गये हैं जिनके आधार पर राज्य संरक्षणात्मक भेदभाव कर सकता है।
स्त्रियों एवं बच्चों के लिए विशेष प्रावधान करने का अधिकार राज्य को पहले से ही प्राप्त था, लेकिन सामाजिक तथा शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों और अनुसूचित जाति तथा जनजाति के सदस्यों के संबंध में विशेष प्रावधान करने का प्रावधान प्रथम संविधान संशोधन, 1951 द्वारा संविधान में अनुच्छेद 15 ( 4 ) को अन्तःस्थापित करके किया गया। सरकारी सेवाओं में आरक्षण का आधार अनुच्छेद 15(4) ही है।
इस अनुच्छेद के संदर्भ में सबसे बड़ी समस्या यह है कि किस व्यक्ति या वर्ग को ” सामाजिक तथा शैक्षिक” दृष्टि से पिछड़ा माना जाये उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया है कि अमुक वर्ग पिछड़ा है या नहीं, इसकी कसौटी एकमात्र जाति नहीं हो सकती है। एक और मामले में उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि पिछड़ेपन का निर्धारण करने के लिए जाति तथा निर्धनता दोनों ही प्रासंगिक हैं, किंतु न तो अकेली जाति और न ही अकेली निर्धनता की कसौटी होगी। उल्लेखनीय है कि इसी निर्णय के आधार पर क्रीमीलेयर की अवधारणा अस्तित्व में आयी। मूल अधिकार एवं कर्त्तव्य
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मूल कर्तव्य Drishti IAS
मूल कर्तव्य कितने हैं
मूल अधिकार कितने हैं
मूल अधिकार PDF
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इन्हें भी पढ़ें –
- राज्य के नीति निर्देशक तत्व | Directive Principles of State Policy [Part-3]
- राज्य के नीति निर्देशक तत्त्व | Directive Principles of State Policy [Part-2]
- राज्य के नीति निर्देशक तत्त्व | Directive Principles of State Policy [Part-1]
- संघ और राज्य क्षेत्र | Union and Territories
- संवैधानिक इतिहास | Constitutional History [Part-3]
- संवैधानिक इतिहास | Constitutional History [Part-2]
- संवैधानिक इतिहास | Constitutional History[Part-1]
- संविधान की प्रस्तावना | Preamble of the Constitution [Part-2]
- संविधान की प्रस्तावना | Preamble of the Constitution [Part-1]