मूल अधिकार एवं कर्त्तव्य भारतीय संविधान के भाग-3 के अनुच्छेद 12 से 35 तक मौलिक अधिकारों का विस्तृत वर्णन किया गया है। डॉ. अम्बेदकर ने मूल अधिकारों से संबंधित संविधान के भाग-3 को “सर्वाधिक आलोकित भाग” कहा था। इन अधिकारों का निर्धारण संविधान सभा द्वारा गठित एक समिति द्वारा किया गया, जिसके अध्यक्ष सरदार वल्लभ भाई पटेल थे।
मूल अधिकार एवं कर्त्तव्य | Fundamental Rights and Duties
अनुच्छेद 19 तथा न्यायिक पुनर्विलोकन
अनुच्छेद 19 में विनिर्दिष्ट 6 आधारभूत स्वतंत्रताएं आत्यंतिक नहीं हैं। राज्य उन पर तर्कसंगत निबन्धन लगा सकता है। तर्कसंगत निबन्धन’ से ही न्यायिक पुनर्विलोकन का सिद्धांत आया है। विधायिका द्वारा निर्धारित किए गए ‘तर्कसंगत निर्बन्ध’ की जांच न्यायिक पुनर्विलोकन द्वारा किया जाएगा। तर्कसंगतता का निर्धारण करने में न्यायालय केवल संबद्ध परिस्थितियों को ही नहीं देखता, अपितु अन्य विधियों को भी देखाता है, जो एकल योजना के रूप में पारित की गई थी। मूल अधिकार एवं कर्त्तव्य
अनुच्छेद 28 – राजकीय शिक्षण संस्थाओं में धार्मिक शिक्षा का निषेष :
इसके अंतर्गत निम्न प्रावधान किये गये हैं
(i) राजकीय निधि से संचालित किसी भी शिक्षण संस्था में किसी भी प्रकार की धार्मिक शिक्षा प्रदान नहीं की जायेगी।
(ii) राज्य द्वारा मान्यता प्राप्त या आर्थिक सहायता प्राप्त शिक्षण संस्था
में किसी व्यक्ति को किसी धर्म विशेष की शिक्षा ग्रहण करने के लिए बाध्य नहीं किया जायेगा।
(iii) वह शिक्षण संस्था जो किसी ऐसे न्यास द्वारा स्थापित की गयी है, जिसके अनुसार इस संस्था में धार्मिक शिक्षा देना आवश्यक है, उसमें धार्मिक शिक्षा दी जा सकती है, भले ही ऐसी संस्था का प्रशासन रान्य करता है।
उपरोक्त तथ्यों से स्पष्ट है कि संविधान ने भारत को एक धर्मनिरपेक्ष राज्य बनाया है। वस्तुत: धर्मनिरपेक्षता के सिद्धान्त को अपनाने के पीछे कई मौलिक और तत्कालीन परिस्थितियां जिम्मेदार
1. भारत में प्रारंभ से ही विश्व के विभिन्न धर्मों और सभ्यताओं का सुखद समागम होता रहा है।
2. स्वतंत्रता आंदोलन के अंतिम चरण की सांप्रदायिक राजनीति के परिणामों को देखते हुए संविधान निर्माताओं ने राज्य एवं राजनीति को धर्म तथा संप्रदाय से पृथक रखना ही हितकारी समझा।
3. भारत में अल्पसंख्यकों का समुचित संरक्षण धर्मनिरपेक्षता पर ही आधारित हो सकता है।
4. भारतीय लोकतांत्रिक शासन प्रणाली में समानता को सर्वोच्च स्थान प्रदान किया गया है। इसी समानता की स्थापना के लिए धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत को अपनाया गया है।
संस्कृति तथा शिक्षा संबंधी अधिकार :
अनुच्छेद 29 और 30 के द्वारा भारत के नागरिकों को संस्कृति तथा शिक्षा संबंधी निम्न अधिकार प्रदान किये गये हैं
अनुच्छेद 29: अल्पसंख्यक वर्गों के हितों का संरक्षण : भारत के ऐसे नागरिकों को जिनकी अपनी विशेष भाषा, लिपि या संस्कृति है, उसे बनाये रखने का अधिकार होगा। राज्य द्वारा पोषित या राज्य विधि से सहायता प्राप्त किसी शिक्षण संस्था में प्रवेश से किसी भी नागरिक को केवल, धर्म, मूलवंश, जाति, भाषा इनमें से किसी के आधार पर वंचित नहीं किया जायेगा।
अनुच्छेद 30: शिक्षा संस्थाओं की स्थापना और प्रशासन करने का अल्पसंख्यक वर्गों का अधिकार : धर्म या भाषा पर आधारित सभी ‘अल्पसंख्यक वर्गों को अपनी रुचि की शिक्षण संस्थाओं की स्थापना और प्रशासन का अधिकार होगा। शिक्षा संस्थाओं को सहायता देने में राज्य किसी शिक्षा संस्था के विरुद्ध इस आधार पर विभेद नहीं करेगा कि वह धर्म या भाषा पर आधारित किसी अल्पसंख्यक वर्ग के प्रबंध में है। मूल अधिकार एवं कर्त्तव्य
सेंट स्टीफेंस कॉलेज बनाम दिल्ली विश्वविद्यालय (1992) के विवाद में न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि पंथ निरपेक्षता या अल्पसंख्यक के नाम पर अल्पसंख्यकों को अधिकार नहीं दिए जा सकते, क्योंकि राष्ट्र की एकता और सद्भावना के लिए बहुसंख्यक का विश्वास भी समान रूप से आवश्यक है। अत: अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थान अपने समुदाय के विद्यार्थियों के लिए अधिकतम 50 प्रतिशत तक स्थान आरक्षित कर सकते हैं|
संवैधानिक उपचारों का अधिकार :
मूल अधिकारों की रक्षा का उत्तरदायित्व उच्चतम न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों को सौंपा गया है। संविधान द्वारा मूल अधिकार न केवल कार्यपालिका के विरुद्ध आश्वासित किये गये हैं, बल्कि व्यवस्थापिका के विरुद्ध भी। मूला अधिकार के उल्लंघन की स्थिति में संविधान के अनुच्छेद 32 के अधीन उच्चतम न्यायालय में तथा अनुच्छेद 226 के अधीन उच्च न्यायालय में रिट (याचिका) दाखिल करने का अधिकार नागरिकों को प्रदान किया गया है।
डा. अंबेदकर ने अनुच्छेद 32 को संविधान की आत्मा एवं हृदय कहा है, क्योंकि यह अनुच्छेद उच्चतम न्यायालय को नागरिकों के मूला अधिकारों का सजग प्रहरी बना देता है। मूल अधिकारों का उल्लंघन होने पर न्यायालय को निम्नलिखित रिट जारी करने का अधिकार है
1 बंदी प्रत्यक्षीकरण (Habeas Corpeas)
2 परमादेश (Mandanus)
3. प्रतिषेध (Prohibition)
4. उत्प्रेषण (Certiorari)
5. अधिकार पृच्छा (Quo Warrante)
(1)बंदी प्रत्यक्षीकरण- यह रिट उस प्राधिकारी के विरुद्ध जारी की जाती है, जो किसी व्यक्ति को बंदी बनाकर रखता है। उस प्राधिकारी को यह निर्देश दिया जाता है कि वह बंदी बनाये गये व्यक्ति को न्यायालय में पेश करे, जिससे न्यायालय यह सुनिश्चित कर सके कि उसका बंदी बनाया जाना वैध है या अवैध। मूल अधिकार एवं कर्त्तव्य
यदि न्यायालय को लगता है कि उसका बंदी बनाया जाना अवैध है तो वह उसकी रिहाई का आदेश देता है। यह रिट अधिकारी या किसी प्राइवेट व्यक्ति के विरुद्ध जारी की जा सकती है। इस रिट के लिए आवेदन स्वयं निरुद्ध व्यक्ति या उसके किसी संबंधी द्वारा की जा सकती है। व्यक्तिगत स्वतंत्रता के लिए यह रिट सर्वाधिक महत्वपूर्ण है।
अपवाद- निम्नलिखित मामलों में बंदी प्रत्यक्षीकरण रिट जारी नहीं की जा सकती।
(i) जब निरुद्ध व्यक्ति न्यायालय की अधिकारिता के भीतर नहीं है,
(ii) जब निरुद्ध व्यक्ति किसी अपराध के लिए दोष सिद्ध किया गया है,
(iii) किसी अभिलेख न्यायालय या संसद द्वारा अवमानना के लिए कार्यवाही में हस्तक्षेप के लिए।
(2) परमादेश- यह रिट न्यायालय द्वारा उस समय जारी की जाती है जब कोई लोक प्राधिकारी अपने कर्तव्यों के निर्वहन से इन्कार करे और जिसके लिए अन्य कोई विधिक उपचार प्राप्त न हो। यह आदेश कंवल सार्वजनिक पद पर कार्य करने वाले अधिकारियों या अन्य व्यक्तियों के विरुद्ध ही नहीं, बल्कि स्वयं सरकार तथा अधीनस्थ न्यायालयों, न्यायिक संस्थाओं के विरुद्ध भी जारी किया जा सकता है। मूल अधिकार एवं कर्त्तव्य
अपवाद- परमादेश निम्न व्यक्तियों के विरुद्ध जारी नहीं किया जा सकता: ( राष्ट्रपति या राज्यपाल के विरुद्ध अपने पद की शक्तियों के प्रयोग तथा कर्तव्यों के पालन के लिए, (D) संविधान या विधि के किसी प्रावधान का उल्लंघन करने के लिए प्राइवेट व्यक्ति या निकाय के विरुद्ध।
(3) प्रतिषेध- यह उच्चतम न्यायालय या उच्च न्यायालय द्वारा अपने से निम्न न्यायालयों को जारी की जाने वाली एक निषेधाज्ञा है, जिसके आर्गत यह आदेश दिया जाता है कि वे किसी मामले में विशेष कोई कार्यवाही न करें क्योंकि यह मामला उनके अधिकार क्षेत्र के बाहर है। प्रतिषेध केवल न्यायिक अथवा अर्द्ध-न्यायिक न्यायाधिकरणों के विरुद्ध जारी किया जा सकता है। इसे ऐसे लोक अधिकारी के विरुद्ध जारी नहीं किया जा सकता जो न्यायिक कृत्य नहीं करता। मूल अधिकार एवं कर्त्तव्य
(4) उत्प्रेषण- प्रतिषेध की तरह उत्प्रेषण का लेख भी न्यायिक एवं अद्धन्यायिक न्यायाधिकरणों के विरुद्ध जारी किया जाता है। दोनों में प्रमुख अंतर यह है कि प्रतिषेध किसी न्यायाधिकरण को अनधिकृत रूप से आदेश देने का निषेध करता है, जबकि उत्प्रेषण इस प्रकार के दिये गये आदेशों को निरस्त कर देता है।
प्रतिषेध उस समय जारी किया जाता है जब किसी मामले में कार्यवाही चल रही हो और उसपर कोई आदेश न दिये गये हों जबकि उत्प्रेषण का लेखा (रिट) उस समय जारी किया जाता है जब किसी मामले पर आदेश दिये जा चुके हॉ। दोनों ही लेखों का उद्देश्य यह है कि निम्न न्यायालय अथवा न्यायाधिकरण अपने क्षेत्राधिकार का समुचित प्रयोग करें और साथ ही अपने अधिकार क्षेत्र तक सीमित रहे। मूल अधिकार एवं कर्त्तव्य
(5) अधिकार पृच्छा- इस लेखा द्वारा न्यायालय को यह अधिकार है कि वह किसी व्यक्ति से पूछ सके कि वह किस अधिकार से सार्वजनिक पद विशेष पर कार्य कर रहा है और यदि उसके दावे का कोई औचित्य सिद्ध न हो तो उसे उक्त पद पर कार्य करने से रोका जा सकता है। इसके लिए आवश्यक शर्त है कि
(i) कानून या संविधान द्वारा सृजित कोई पद होना चाहिए और
(i) यह पद वास्तविक रूप से मौलिक हो, न कि किसी के प्रसाद पन्त उसकी स्वेच्छा से रखा गया कर्मचारी हो। इस प्रकार इस लेख के द्वारा गैर-कानूनी ढंग से सार्वजनिक पदों पर अवैध दावेदारी की रोकथाम करने का प्रयास किया गया है।
मूल अधिकार एवं कर्त्तव्य : मूल अधिकार एवं कर्त्तव्य : मूल अधिकार एवं कर्त्तव्य : मूल अधिकार एवं कर्त्तव्य
मूल अधिकार एवं कर्त्तव्य
मूल कर्तव्य Drishti IAS
मूल कर्तव्य कितने हैं
मूल अधिकार कितने हैं
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- मूल अधिकार एवं कर्त्तव्य | Fundamental Rights and Duties [Part-2]
- मूल अधिकार एवं कर्त्तव्य | Fundamental Rights and Duties [Part-1]
- राज्य के नीति निर्देशक तत्व | Directive Principles of State Policy [Part-3]
- राज्य के नीति निर्देशक तत्त्व | Directive Principles of State Policy [Part-2]
- राज्य के नीति निर्देशक तत्त्व | Directive Principles of State Policy [Part-1]